कविता

ईश्वर की लीला

ईश्वर की लीला भी कितनी अजीब है
जो चाहते हैं हम, वो होता नहीं है
जिसकी कल्पना तक नहीं करते
वो जरुर हो जाता है।
जिसे जानते हैं हम
जिससे रिश्ता है हमारा
जिसे अपना कहते नहीं अघाते,
पर उससे मिली पीड़ा नासूर से बन जाते,
हम तड़प कर रह जाते
ऊपर से भले ही न कुछ कह पायें
पर अंदर से रहते हैं खार खाये।
यह भी विडंबना ही तो है
जिसे जानते पहचानते नहीं
जिससे दूर दूर तक कोई रिश्ता नहीं
अचानक वो अपना बन जाता है
पूर्व जन्म के रिश्तों का अहसास जगाता है,
दिल में उतरकर बस जाता है,
जीवन को नव मोड़ दे जाता है।
हम शीष झुकाने से भी नहीं हिचकिचाते हैं
उसके कंधे पर सिर रख सारे ग़म भूल जाते हैं,
उसकी गोद में सिर रखकर आंसू भी बहा लेते हैं,
अपनी पीड़ा आंसुओं संग बहा देते हैं,
उसके शीतल स्पर्श को अपने सिर पर पा
जैसे माँ की ममता,बहन का प्यार, बेटी का दुलार
पिता का संबल, भाई का स्नेह
किसी अपने का अपनत्व सा
महसूस कर निहाल हो जाते हैं,
अपने सारे ग़म कुछ पल के लिए ही सही
हम हों आप भूल ही जाते हैं
जीवन सुख शायद ऐसे ही होते हैं
जिसका अनुभव हम सब
कभी न कभी जरुर करते हैं
ईश्वर की लीला को प्रणाम करते हैं।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921