प्रेम
नदी के जल में
घुल गया है सुनहरा सूरज
नीचे तक झुक आया है
नीला आकाश
काँप रही है हवा,
और तुम लिख रही हो
कोई कविता
तितलियों के पंखों पर!
तुम्हारी आँख से
काजल लेकर
साँवली हो गई है साँझ
आसमान में आँसू की तरह
लटक रहा है चाँद।
अपनी तर्जनी के पोर से
तुमने उसे छुआ
और वह बह चला नदी के साथ!
तुम पढ़ रही हो मेरी कविताएं
जो तुम से शुरु होकर
तुम पर ही खत्म होती हैं,
तुम्हारे स्पर्श से
जुगनुओं की तरह
चमक उठते हैं मेरे शब्द,
अर्थ उड़ते हैं आसमान में
चहचहाते पक्षियों की तरह!
सुनेत्रा,
मेरे और तुम्हारे बीच,
फिर से लिखा जा रहा है प्रेम
किसी अनूठी हस्त-लिपि में!
— राजेश्वर वशिष्ठ