एक सूनापन एक खालीपन
बस चन्द यादें बीते हुए कल की
वो कैसे समझ पाता जिसने
जीवन का वो रूप देखा ही न था
जो जिया था उसने हर पल
हर क्षण, सिसकते हुए वीरानों में
कभी धूप की किरणों से जब
छलक उठा था दर्द का सागर
वो कैसे समझ पाता जिसने
जीवन का वो रूप देखा ही न था
गरजते हुए बादलों के शोर में
जब सिसकने की आवाज को
गीत बताकर छिपा लिया था
आँसू को अपनी हल्की मुस्कान से
वो कैसे समझ पाता जिसने
जीवन का वो रूप देखा ही न था
रात के अन्धेरों में जब लिपट गया था
खुद के ही आगोश में समझकर
प्यार भरा अहसास किसी का
दर्द को आनंद का लिहाफ समझकर
वो कैसे समझ पाता जिसने
जीवन का वो रूप देखा ही न था
दर्द का उफनता सागर काबू करना
आसान कब रहा कितने ही युगों से
मंजर वो जुदाई का आसान तो न था
चल पड़ा था फिर भी मंजिल की तलाश में
वो कैसे समझ पाता जिसने
जीवन का वो रूप देखा ही न था
— वर्षा वार्ष्णेय