गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

बहुत ग़म में बहुत थोड़ी खुशी मालूम होती है,
खुशी से जी लिये वो ज़िंदगी मालूम होती है।
करोड़ों के बिछोने कुछ नहीं है सामने उसके,
जिसे बस गोद माँ की ही भली मालूम होती है।
घिरा रहकर भी पानी से जो प्यासा ही रहा हरदम,
कहाँ सागर को अपनी तिश्नगी मालूम होती है।
बहुत नकली हैं मुस्काने लबों पर आजकल सबके,
के मुस्कानों से उनकी बेबसी मालूम होती है।
है इतनी बावली फैशन के पीछे आजकल नारी,
जो पहनावे से अपने आदमी मालूम होती है।
गया वो पोंछकर आंँसू हमारी आँख से फिर भी,
हमें अक्सर ही पलकों में नमी मालूम होती है।
कोई आए न आए जय कहाँ कुछ फर्क है किसको,
यहांँ तो बस तुम्हारी ही कमी मालूम होती है।
— जयकृष्ण चांडक ‘जय’

*जयकृष्ण चाँडक 'जय'

हरदा म. प्र. से