प्रेम दीप
दिल की चिराग जलाये बैठा हूँ
रात बहुत अंधियारी है
आँखों से नींदिया है गायब
सुबहा की लंबी ये दूरी है
भटक रही है नजरें ये हमारी
तेरी अक्स को ढुँढने में अब
तिमिर ने ओढ़ा दी है कैसी चादर
रात भी अमावश सी अंधेरी है
आवाज गुँज रही है दूर तलक
इस सहरा वियावन जंगल में
आती नहीं तुम्हारी प्रत्युत्तर
गहरा जख्म है दिल के अन्दर में
कैसे समझाऊँ जख्मी जिगर को
जो कबसे है टीस दे रोता है
मेरी किस्मत में मोहब्बत का ना
या तेरी दिल में कोई खोटा है
कौन सुने अब मेरी फरियाद
बैरी बना जमाना कब से है
वैद्य भी नजर ना दीखता है
या मरहम बना सयाना है
इल्तजा है मेरी तेरे दर पे
कर दो जिगर को चंगा सनम
अब ना सह पायेगें ये जख्म
गमजदां मन है मेरा हमदम
— उदय किशोर साह