शीर्षक सर्दियों के दिन रात
सिहरने लगी है ये शाम जरा
रात भी है कुछ अलसाई-सी
ओस की बूंदों से सराबोर
कोहरे के चादर लपेट
आई है भोर कंपकंपाती हुई
सर्दियों की सर्द हवाएं
लगी है शरीर को कंपकंपाने
धूप ने थोड़ी राहत दिलाई
धूप का पीछा करते
हम सारा दिन गुजारे
सर्दियों में खाना सोना
बड़ा सुहाए
कोई काम करना
मन को न भाए ।
रजाई अति मन भाए
आग तो मानो जीवन दे जाए
चाय की चुस्कियां
आत्मा तृप्त कर जाए ।
लहलहाती सरसों के खेत
मन भाए
रंग-बिरंगी फूलों की क्यारियां
मन को मोह ले जाएं।
सर्दियों के दिन रात
बड़ी सुखद अहसास कराएं।।
— विभा कुमारी “नीरजा”