कहानी

कहानी – अपनी अपनी जिन्दगी

नूना मेरे पास काम की तलाश में आया था। अपने नये फार्म हाउस के लिए मुझे एक नौजवान नौकर की जरूरत थी। नूना को उसी काम के लिए बुलाया था मैने। पीडा में डूबी नूना की बातों ने मुझे झकझोर दिया था। वह अपनी आप बीती सुना नहीं जैस गिना रहा था-“ कहां पता था बाबू, कि एक दिन हमें अपने ही राज्य में नौकरी के लिए दर दर की ठोकरे खानी पडेगी- भटकना पडेगा, पढते वक्त मन में कई तरह के सपने थे, अब सपने देखने से भी डर लगता है।“’
हल्की दाढी और कांतिहीन चेहरे वाले नूना की आंखों में मैने झांका। वह अपने इस जीवन पर जैसे रो रहा था-“साहब, आप तो काफी पढे लिखे लगते हो, पढा-लिखा तो मै भी हूं, फर्क सिर्फ इतना है कि आप हमारी कहानी सुन रहे है और मै आपको सुना रहा हॅंू, , आप देख रहे है हमारे राज्य में कल कारखानों की कोई कमी नहीं है, रत्नगर्भा है हमारा राज्य लेकिन हमारे लिए ही इस राज्य में कोई काम, कोई नौकरी नहीं है, पांच साल पहले आइटी आइ से मैने वेल्डर का कोर्स पूरा किया, मां ने दिन रात मेहनत मजदूरी करके मुझे पढाया कि औधोगिक शहर होने के कारण नौकरी मिल जायेगी, ऐसी उम्मीद लगाकर वह अच्छे दिन की कामना करती रही, तीन चार बार साक्षात्कार दिया मैने, परन्तु पैरवी और पैसे के अभाव में हर बार मै नौकरी से वचिंत रहा। पिता बचपन में ही मर चुके था, मां मेहनत मजदूरी करती तो घर का चूल्हा जलता था ऐसे में रिश्वत के लिए पचास साठ हजार रूपये कहां से लाता मै, घूस देकर बाहरी लोग हमारी जगह घूस जाते थे। को्रध आता, नक्सली ज्वाइन करने का मन करता, उधर से कई बार बुलावा भी आ चुका था लेकिन कभी गया नही, ं मां का भयातुर चेहरा सामने आ खडा हो जाता, वह कंपकपाते होठ से कहती-“ बेटा, उधर कभी मत जाना, मन बहुत घबराता है मेरा, उस जीवन से अच्छा है छोटा-मोटा मेहनत मजदूरी कर लो, कोई काम छोटा नहीं होता…..।
नूना मूर्मू एक पल के लिए रूका था फिर चालू हो गया-“मेरा नक्सली न होने के पीछे मेरा वेल्डर मोह भी था, मन के किसी कोने में नौकरी मिल जायेगी, ऐसा विष्वास लिए बैठा हुआ था एक खास वजह और भी थी, प्रिया का प्यार !वह एक जीवन इवेंट था। एक बार साक्षात्कार के दौरान एक दिन कोयला भवन में प्रिया मिली थी। वह अपने माता पिता के साथ किसी काम से आॅफिस में आयी थीं, उनके माता पिता सुदामडीह पोखरिया खदान में मलकटा के काम करते थे, बाद में मैने भी सुदामडीह के एक प्राइवेट स्कूल में बच्चों को पढाने का काम पकड लिया, इस तरह प्रिया बाउरी के प्यार ने मेरे झुलसे मन को छांव दी, एक ठौर दिया, पर दिक्कत यह थी कि प्राइवेट स्कूल में तीन माह पढाओ तो एक माह का वेतन मिलता था, वह भी बहुत कम राशि, इस बीच हम दोनों ने शादी कर ली। उनके माता पिता नाराज हो गये। थाना फौदारी भी हुआ लेकिन प्रिया ने हमारा साथ नहीं छोडा। साल भर बाद प्रिया मेरे एक बच्चे की मां बनी, सोचा था कि शाायद इसी बहाने ही सही हमारी तकदीर कोई करवट बदले, दरिद्रता मिटे लेकिन लंगडा से भंगडा नहीं होता। प्रिया के माता पिता नाराज ही रहे, नाती तक को देखने नहीं आये, तकदीर के भरोसे हाथ पर हाथ धरे बैठे रहना मुझे मंजूर नहीं था। काम और दाम को लेकर इधर उधर भाग दौड करता रहा तभी लू लगने से एक दिन मां भी चल बसी “!
नूना की आंखें भर आई थी-“ वह दो दिनों से भूखी थी, पापी पेट के लिए चिलचिलाती धूप में काम ढूंढने निकल पडी थी, मै भी काम की तलाश में बाहर भटक रहा था। जिस भूख ने मेरी मां को निगल लिया, उसी भूख के आगे बहुतों को सिद्धांत, राह, और न जाने क्या क्या बदलते हुए देखा है मैने, इसी भूख के आगे औरतों को धनपशुओं के आगे नंगें बदन नाचते देखा, उसकी नंगी जिस्म को नोचते देखा है “ धारा प्रवाह वह आगे कहता रहा।-“ घर भी कहां था अपना, पोखरिया में जो था, वह माटी का एक टीला सा था एक रात बरसात में वह भी ढह गया था, मां मर चुकी थी, घर से बेघर हो चुका था और काम के सिलसिले में अब तक दर्जनों दरवाजे पीट चुका था, हार कर एक दिन प्रिया को उसके माता पिता के घर छोड आया और दूसरे दिन मुंबई जाने वाली टोली में ंखुद भी शामिल कर लिया। सुना था कि वहां आदम को उसकी योग्यता के बराबर काम मिल जाता है “ा
नूना खैनी खाने के लिए थोडी देर के लिए रूका था-“ क्या बताउं साहब ..“ उसने कहना फिर शुरू किया-“ मुंबई तो चला गया, मगर वहां जाने के बाद ऐसा लगा कि हम जैसों के लिए मुंबई है ही नहीं, किसी ने ठीक ही कहा है मुंबई में सब बिकाउ है, लोग कई तरह के सपने लेकर मुंबई शहर में पहुंचते हंै और न जाने किस भीड में खो जाते हैं, परन्तु मुझ जैसे लोगों के लिए मुंबई नही है, और तो जहां तहां ईंटं-बालू में लग गये पर मेरा कहीं ठिकाना नहीं लगा, जो काम मिल रहा था वैसा काम तो मै छोडकर आया था, कई दिनों तक एक ढंग के काम की तलाश में भटकता रहा, भटकता रहा, परन्तु कहीं खप नही ं पाया, जेब मे ं जो पैसे थे वो कब का खत्म हो चुका था। दो दिनों से वी टी स्टेशन के बाहर पानी पी पी कर काम खोज रहा था ….ा रेलगाडियां आती एक भीड निकलती और वे न जाने कहां कहां समा जाती, परन्तु मेरे लिए कोई खोली में जगह खाली नहीं थीा
काम की तलाश में मुंबई गये सैकडों युवायों की कहानियां सुन चुका था मैने, अब नूना की कहानी भी दिलचस्प मोड पर आ गया था। नूना आगे अलाप रहा था-“तीसरे दिन मेरे खाली पेट ने बगावत कर दिया। जोर का एक मरोड उठा, भूख सहा नहीं गया तो बगल के एक ढाबे में जा घूसा, पहले तो भर पेट खाना खाया। सप्ताह दिन बाद दाल भात नसीब हुआ था। सो जम कर खाया, अब जो हो सो हो, यह सोच थोडी देर तक वैसा ही बेंच पर बैठा रहा, पास में पैसा था नही, देता कहां से ?
सप्ताह दिन तक होटल मालकिन के यहां बंधक रहा। फिर एक दिन चुसे आम की गुठली की तरह उसने मकान से बाहर फेंक दी। मैं फिर सडक पर आ गया। मै फिर इधर उधर भटकने लगा।, एक दिन शाम को वी टी स्टेशन के बाहर दुबका सा बैठा था। यह सोच कर कि किसी मालगाडी में बैठ अपने गांव लौट जाउं, वहीं कुछ कमाने की सोचूंगा, अभी मैं इसी पर सोच रहा था कि स्टेशन के बाहर एक जोरदार बम धमाका हुआ। फिर तो वहां देखते ही देखते चीख-पुकार, और अफरा-तफरी मच गई। लोग इधर से उधर भागने लगे थे। पुलिस घटना स्थल पर पहुंच चुकी थी। मै एक मालगाडी की तरफ भागा, तभी कोमल दो हाथों ने अपनी ओर खींच लिया था मुझे। वह एक धंधे वाली औरत थी। स्टेशन के बाहर खडी मालगाडियों के डिब्बों में वह अपना धंधा करती थी छिप-छिप कर ! “
नूना का भाव भंगिमा बेहद गंभीर हो गया था-“ साहब, जीवन के कितने रंग, कितने रूप होते ह, ै यह मैने तभी जाना था, वैसे हम दोनों के जीवन में कोई ज्यादा फर्क नहीं था। उसके अंदर का नारीत्व मरा नहीं था, ममता इतनी मैली भी नहीं होती है। उसने मुझे उस मालगाडी के चालक से मिलवा कर साथ बिठवा दिया, मना करने के बावजूद कुछ पैसे उसने मेरी जेब में ठूंस दी- “सीधे अब घर चले जाना।“ भींगी पलको को पोछते हुए उसने कहा था।
“ यहां काम क्या करना है, मालूम है तुम्हे-“ अचानक मैने नूना से पूछ लिया था, नूना पहले जोर से हंसा जैसे अपने तकदीर पर हंस रहा हो, फिर बोला-“ साहब, उस होटलवाली मालकनि के कराये काम से, बुरा तो नहीं होगा “ बोलते बोलते वह रूक गया था।
थोडी देर बाद हम फार्म हाउस के बाहर खडे थे। सामने पहुंच कर नूना ने अपने मटमैले बेग को जमीन पर रखा और कुछ इस तरह बैठ गया था जैसे पैरों को लकवा मार दिया हो। वह सामने लगे बोर्ड को पढ रहा था और सोच रहा था कि क्या इसी दिन को देखने के लिए वेल्डर का सर्टिफिकेट को बचा रखा था, यहां किसका वेल्डींग करूंगा ? जीवन का, जमीर का या फिर तकदीर का ? बोर्ड पर साफ लिखा था-“सूअर पालन घर। “

— श्यामल बिहारी महतो

*श्यामल बिहारी महतो

जन्म: पन्द्रह फरवरी उन्नीस सौ उन्हतर मुंगो ग्राम में बोकारो जिला झारखंड में शिक्षा:स्नातक प्रकाशन: बहेलियों के बीच कहानी संग्रह भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित तथा अन्य दो कहानी संग्रह बिजनेस और लतखोर प्रकाशित और कोयला का फूल उपन्यास प्रकाशित पांचवीं प्रेस में संप्रति: तारमी कोलियरी सीसीएल में कार्मिक विभाग में वरीय लिपिक स्पेशल ग्रेड पद पर कार्यरत और मजदूर यूनियन में सक्रिय