कविता

शरद ऋतु की धुंध

शरद ऋतु की धुंध ने, फैलाया है जाल,
अवनि-अंबर ढक गए, थम-से गए हैं ताल.
सूरज भी फीका हुआ, फीकी हो गई धूप,
तेजोमय जो कांति थी, धुंधला उसका रूप.
चंदा भी धुंध से ढका, ढकी चांदनी नार,
हरदम जो थी जीतती, गई धुंध से हार.
जीवन भी इक धुंध है, समझ न आती चाल,
वार कभी तीखा करे, बन जाए कभी ढाल.
मौसम की जो धुंध है, रवि आते ही जाय,
पर जीवन की धुंध से, किसको कौन बचाय!
धुंधले-धुंधले दिख रहे, अवनि-अंबर आज,
धुंधली हो गई दृष्टि भी, धुंधले महल और ताज.
मौसम की यह धुंध तो, धूप की है मोहताज,
पर बुद्धि की धुंध का, कहिए कौन इलाज!
धुंध की चादर चहुं दिशि, धुंधला अवनि-परिधान,
शीत ऋतु कहे गर्व से, यह तो मेरी शान!
जीवन है सिकुड़ा हुआ, सिकुड़ गई है खाल,
सिकुड़न धुंध की जाएगी, खाइए खूब तर माल!
धुंध की महिमा देखिए, महारानी बिन ताज,
इसके आगे धूप को, आते लगती लाज.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244