बालिकाओं में शिक्षा के बाद परिवर्तन व नारी का स्थान
आज के समय में शिक्षा का खूब-खूब विस्तार हुआ है। इसके विस्तार के परिणामस्वरूप बालिकाओं में आमूलचूल परिवर्तन हुआ है। बालिकायें शिक्षा प्राप्त करने के बाद घर, समाज आदि की उन्नति में तो अपना अमूल्य योगदान दे ही रही हैं, साथ में राष्ट्र के विकास में भी अपना शीर्ष पद पर सेवायें देकर देश के सही से निर्माण में व विश्व पटल पर सेवायें देकर अपनी अलग पहचान क़ायम की है। जिनेवा में संयुक्त राष्ट्र महासभा के कार्यालय में सेवाये हो या राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, वितमंत्री आदि जैसे पद हो हर जगह कही न कही हम महिलाओं को देख सकते है। बालिकायें शिक्षा ग्रहण कर आगे शादी के बाद महिलाओं के रूप में पुरूषों के साथ कन्धे से कन्धा मिलाकर चलती है। औरत- औ का अर्थ है- आत्माबली, संकल्प पूरक। र का अर्थ है- ऊर्जावर्धक। त का अर्थ है- सरस्वती-स्वरुप। औरत शब्द में इतनी-इतनी विषेशताएँ होती हैं। इस अर्थ की सार्थकता तब नजर आती है, जब एक मकान घर बन जाता है और घर एक मंदिर बन जाता है। भारतीय संस्कृति में नारी के सम्मान को हम ऐतिहासिक स्तर पर भी देख सकते है। जब में भारतीय संस्कृति की बात करता हूं तो जैन, बौद्ध, वैदिक सभी परंपराएं आ जाती है। जहाँ स्त्री की पूजा होती है वहाँ देवता रमण करते है, यह उदात्त स्वर भारतीय परंपरा का रहा है। जैन परंपरा की बात करें तो आदि पुरुष भगवान ऋषभ माता मरूदेवा के आदेश का कितना सम्मान करते थे वह उस घटना से पता लगता है जब युगल में उसका पुरुष साथी आश्चर्यजनक घटना में उसकी जीवन यात्रा शेष हो जाती है और माता कहती है इसका विवाह ऋषभ के साथ कर दो। जैन परम्परा उक्त घटना को विवाह संस्था का उदय मानती है। ऋषभ ने अपनी पुत्री ब्राह्मी को लिपि कला और सुंदरी को गणित की कला सिखाई। 16 महासतियों का वर्णन जैन परम्परा में नारी जाति के प्रति अत्यंत सम्मान को दिखाता है। तीर्थंकर परंपरा में श्वेताबार संप्रदाय 19वें तीर्थंकर मल्लिनाथ को स्त्री को सर्वाेच्च आध्यात्मिक पद देना स्वीकृत करता है। भगवान महावीर ने चंदनबाला का उद्धार करके उनको 36000 साध्वियों की प्रमुख बनाया। विनोबा भावे के शब्दो में- भगवान महावीर ने नारी जाति को जो अधिकार दिए वे कोई साधारण नहीं थे। जो साहस महावीर ने दिखाया वह बुद्ध में नही दिखाई दिया। यह विनोबा जी का मानना है। तेरापंथ का गौरवशाली इतिहास देखे तो आचार्य भिक्षु के समय खंडित लड्डू को पूर्ण करने वाली तीन साध्वियों ने संवत 1821 में अपना साहस और शौर्य दिखाया। भिक्षु स्वामी ने उनको सचेत किया एक भी कालधर्म को प्राप्त हुई तो शेष दो को संलेखना का मार्ग अपनाना होगा। वे अडिग रही है। जयाचार्य ने साध्वी सरादरां जी को तैयार किया और प्रथम साध्वी प्रमूखा बनाया और नारी जाति का कितना सम्मान बढ़ाया। यह परंपरा गतिशील रही। नवम अधिशास्ता आचार्य तुलसी ने नारी की चेतना को विकसित करने में नए आयाम स्थापित किए। नया मोड़ आंदोलन से सुप्तता को मिटाया और विकास की नई उड़ान भरने का आकाश दिया। विकास मूल्यों के साथ हो यह उनकी विशेष प्रेरणा रही। पूर्व साध्वी प्रमुखा श्री कनक प्रभा जी आचार्य श्री तुलसी की कृति है। आचार्य श्री महाश्रमण जी ने उनको शासन माता के गौरवमयी स्थान पर आसीन किया था। वर्तमान नवम् साध्वी प्रमुखा श्री विश्रुत विभा जी को आचार्य श्री महाश्रमण जी ने नियुक्त किया है। महिलाओं में क्षमता भी होती है और अनेकं नैसर्गिक गुण भी। ममता, सहज वात्सलय, करुणा, पृथ्वी के समान सहिष्णुता, दृढ़संकल्प शक्ति भी विद्यमान रहते है। संस्कार निर्माण में महिलाओं की भूमिका विशिष्ट होती है। नारी और नर एक गाड़ी के 2 पहिये हैं। दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे हैं। दोनों की एकरूपता ही पूर्ण विकास है। नारी सद्गुणों की खान हैं। वहीं नर भी नारायण से किसी से कम नहीं है। दोनों का युगल ही सृष्टि का सृजनहार है। यत्र नार्यस्तु पूज्यंते, रमन्ते तत्र देवता। नारी के अंदर बसे नारीत्व के गुणों का ध्यान आता है। वात्सल्य, स्नेह, ममता, दया, करुणा, बलिदान, सहनशीलता, लज्जा, हिम्मत, शील आदि अनेक गुणों को आत्मसात किया हे नारीत्व ने। इन सारे गुणों को धारण करने वाली समस्त नारी जाति को मेरा नमन।
— प्रदीप छाजेड़