आनुवांशिकता
पार्क की बेंच पर बैठा बच्चा, कोई किताब पढ़ रहा था। उसकी उम्र अंदाजन नौ या दस की होगी।
मैं उसी के समीप जा कर बैठ गया। उसने एक नज़र मेरी तरफ डाली तभी मैंने पूछा -“क्या पढ़ रहे हो? “
बिना कुछ बोले उसने मुझे किताब का मुख पृष्ठ दिखाया। ‘ बोध कथायें ‘
मैंने फिर सवाल किया “खेल क्यों नहीं रहे?”उसने अपने पैर की तरफ इशारा किया। ओह, उसके पास रखी व्हीलचेयर पर तो मेरा ध्यान ही न था।
“क्या नाम है आपका?” मैंने संवाद की गति बनाये रखी।
“जी, भरत।”
“पढना अच्छा लगता है?”
उसने हाँ में सिर हिलाया।
मन में उसके प्रति उत्सुकता सी जाग गई।
“किसके बेटे हो?”(मेरा आशय, उसके पिता के नाम से था )
“अपने माँ -पिता का। “धारदार जवाब था।
“क्या करतें हैं,आपके पिता और माँ?”
“पिता नहीं हैं, माँ उस विद्यालय(विद्यालय का नाम बताया )में शिक्षिका हैं।”
“अरे!मैं उस विद्यालय में प्रमुख अध्यापक हूँ। नाम जान सकता हूँ आपकी माँ का?”
“जी, मेरी माँ का नाम गार्गी देवी है।”
चौंक गया मैं। इस महिला के बारे में विद्यालय के कर्मियों के बीच खूब कानाफूसी होती रहती है। खबरें मेरे पास भी पहुँचतीं हैं । दरिंदगी की शिकार हुई थी वह।
आज विद्यालय में प्रार्थना के बाद, प्रार्थना सभा में दिये हुए मेरे सद-विचार का विषय रहा–
“बच्चों के चरित्र निर्माण में आनुवांशिकता का नहीं, शिक्षा और संस्कार का महत्व होता है।”
— सुनीता मिश्रा