बाल कविता “अपनी बेरी गदरायी है”
लगा हुआ है इनका ढेर।
ठेले पर बिकते हैं बेर।।
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रहते हैं काँटों के संग।
इनके हैं मनमोहक रंग।।
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जो हरियल हैं, वे कच्चे हैं।
जो पीले हैं, वे पक्के हैं।।
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ये सबके मन को ललचाते।
हम बच्चों को बहुत लुभाते।।
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शंकर जी को भोग लगाते।
व्रत में हम बेरों को खाते।।
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ऋतु बसन्त की मन भायी है।
अपनी बेरी गदरायी है।।
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’