कुछ देखो मत, अंधे होकर बैठे रहो
वे जो कर रहे हैं
करने दो
न देखो,
न सुनो,
न बोलो,
उन्हें करने दो अपनी मनमानी
सिर्फ देखते जाओ तुम द्रष्टा होकर
तभी वे तुम पर खुश रहते हैं,
वे कुछ भी करें
उन्हें करने दो
तभी वे तुम पर मेहरबान रहेंगे,
वे चाहते हैं
तुम
इसी तरह द्रष्टाभाव से
चिन्तनहीन होकर तटस्थ बैठे रहो
और वे
वह सब कुछ करते रहें
जो न तुम्हारे हक में है,
न देश और प्रजा के हित में,
पूरा का पूरा देश ही
उनका अपना घर है
या कि
वे देश भर को मानने लगे हैं
अपना ही घर
तभी तो नहीं आती शर्म उन्हें
घर भरते रहने में,
वे चाहते हैं
तुम कुछ भी प्रतिक्रिया न करो,
ठीक वैसे ही बैठे रहो
जैसे किसी श्मशान में
लोग बैठे रहते हैं
मुर्दे के पूरे जलने की प्रतीक्षा में,
वे यह भी चाहते हैं कि
तुम
गमगीन बैठे रहो
किसी शोक सभा के हिस्सेदार की तरह
और वे
पराये पैसों पर
उड़ाते रहें मौज जी भर कर।
तुम न हिलो, न डुलो,
स्थिर रहो, स्थितप्रज्ञ हो जाओ
कठपुतलियों की तरह
और
चलते ही रहो वैसे ही जैसे
अपने इर्द-गिर्द कई
नाकाबिल ‘वृहन्नला’ कापुरुष
उनके अंधानुचरों की तरह
भाग-दौड़ करते फिर रहे हैं
जैसे जलबी दौड़ में कुत्ते और सूअर,
तुमने जरा भी हरकत की,
कोई प्रतिक्रिया की तो
वे हो जाते हैं चौकन्ने
और शुरू कर देते हैं
वे तमाम रास्ते
जिनसे होकर
मौत आती है
तुम्हारे करीब
किश्तों-किश्तों में
कभी अवमानना तो कभी प्रताड़ना
कभी प्रतिष्ठाहनन के घिनौने हथकण्डों
और कभी
सत्ता की खुरचन से उपजी दुर्गन्ध के रूप में।
वे चाहते हैं
पूरी धरती से लेकर
सूरज तक को
अपनी बाँहों से नाप कर
पीढ़ियों तक जताते रहें
अपना अवैध अधिकार
और
लोग देखते रहें
टुकर-टुकर कर
किसी नज़रबन्द कैदी की तरह
विवश होकर।
न उन्हें इतिहास से सरोकार है
न संस्कृति और आदर्शों से
अपने आदर्श
वे खुद गढ़ते हैं
और खुद तय करते हैं अपने रास्ते
जहाँ फर्श से लेकर अर्श तक
बिछी होती हैं
स्वर्ण और रजत की सिल्लियाँ,
सजी रहती है सेज
मखमल की
जहाँ
हर थिरकन देती है
फुलवारी की गंध और आनंद।
उन्हें नहीं कोई सरोकार
किसी से।
बोलने वाले चुप हैं,
सुनने वाले कान में तेल डाले बैठे हैं
और देखने वालों को हो चला है
स्वार्थ का गहरा-घना मोतियाबिन्द,
ऐसे में
आने वाली पीढ़ियों के लिए
हम क्या छोड़ जाएंगे…..
आक्षितिज पसरा अंधेरा,
काले अंग्रेजों की
कभी न खत्म होने वाली गुलामी
और
मानवीय मूल्यों की निर्मम हत्या की गवाही देते
महा-श्मशान।
— डॉ. दीपक आचार्य