विडंबना
”आज घर में मौन क्यों है?”
घर का मौन सुरेंद्र को खाए जा रहा था. इसी मौन के लिए वह पिछले बीस सालों से तरस रहा था! मौन मिलता भी कैसे!
बीस साल पहले शुभा से उसकी शादी हुई थी.
तब से सुबह उठता तो रसोईघर की खटर-पटर, कभी कपड़े धोने की आवाजें, कभी डाइनिंग टेबिल पर बरतन रखने की तो कभी उठाने की, कभी कपड़े तहाती हुई कपड़ों को फटकारने का शोर, देर रात को भी उसके लिए बादाम वाला दूध बनाने की अदा, जिसे सुरीली सरगम तो नहीं ही कहा जा सकता!
पिछले बीस दिनों से वह ऐसी आवाजों के लिए तरस गया था. उसका मन तो रो ही रहा था, बाकी सबके मौन होते हुए भी उसको उनका रुदन ही लगता.
कितनी मुश्किल से उसने शुभा का क्रियाकर्म किया था. तब तो घर में रिश्तेदारों और पड़ोसियों की आवाजाही की आवाजें थीं, पर थीं तो सही!
अब सब चले गए, सुबह-शाम सहायिका आकर खाना भी बना देती और बाकी सब काम भी कर जाती. आवाजें उसकी भी होती थीं, पर उसे सुनाई नहीं देती थीं. फिर उनमें शुभा की आवाजों जैसी खनक कहां?
कभी वह मौन के लिए तरसता था, अब आवाजों के लिए! जिन आवाजों को वह निरर्थक समझता रहा वही तो उसकी अभ्यर्थना थी, वंदना थी!
उन आवाजों को अब भी वह ढूंढ रहा है.
विडंबना ही तो है यह!
— लीला तिवानी