लघुकथा

कैसी है यह मजबूरी …    

खुशहाल हट्टा-कट्टा नौजवान था। वह दसवीं पास था। उसके मां-बाप बचपन में ही उसे अकेला छोड़कर भगवान को प्यारे हो गए। किसी सगे-संबंधी  ने  उसका साथ नहीं दिया। पेट भरने के लिए वह दिहाड़ी करने लगा। वह मेहनती, ईमानदार और मृृृदुभाषी था। हरेक  मिस्त्री उसे अपने साथ रखना चाहता। पोष का महीना था। कड़ाके की ठंड  थी। एक सेठ के घर काम करने के दौरान खुशहाल छत से नीचे आ गिरा । उसके पैर पर गंभीर चोट आई। दो महीने के लिए उसकी बाजु पर पलस्तर लगा रहा। उन  दिनों एक समाज सेवी संस्था ने उसको आश्रय दिया। दुर्भाग्यवश खुशहाल बुरी संगत में फंस गया। मेहनत-मजदूरी छोड़कर वह लोगों से  मांगने लगा। खुशहाल  प्राय: श्याम बाबू की दुकान के आगे से गुजरता था और उसकेे पास भी रुक जाया करता था। श्याम बाबू ने कभी भी  मांगने वाले को पैसे नहीं दिए। हां, चायपान व भोजन अवश्य खिला देता ।
     नि:सन्देह कुछेक महीने के बाद खुशहाल पूर्णता स्वस्थ हो गया पर उसने लोगों से धन माँगने की अपनी आदत नहीं छोड़ी। श्याम बाबू ने उसे अपना यह घिनौना धन्धा बंद करने के लिए कहा तो वह कहने लगा ,”श्याम बाबू ! आप मुझे जो मर्जी कह लो । मैं आपकी दुकान पर नहीं आऊँगा पर एक बात सुन लो कि मैं मेहनत -मजदूरी करके जितना पैसा कमाता था उतना पैसा मैं बड़े आराम से भीख मांगकर कमा लेता हूँ “। उसका आखिरी वाक्य सुनकर श्याम और बाबू चौंक गया।
 — वीरेन्द्र शर्मा

वीरेन्द्र शर्मा वात्स्यायन

धर्मकोट जिला (मोगा) पंजाब मो. 94172 80333