गीत – संवेद्य संतति और जननी
पोंछ रहा जननी के आँसू बेटा भोला।
उठता उर तपता – सा भारी -भारी गोला।।
क्या दुख है मेरी माँ तुझको कौन सताए।
तेरा सुत उरज-अंश सह क्या तृण भर पाए??
देख -देख ये कपोल उर मेरे विष घोला।
कारण मैं तो नहीं न बता दे मात मेरी।
तन -मन की वह पीड़ा भर रही अँधेरी।।
छोटा हूँ तो क्या है दहकता हृदय- शोला।
मेरा तन ही नंगा विवसन मैं यहाँ खड़ा।
कत पोंछू मैं तव अश्रु हाए ! मैं अवश बड़ा।।
तेरा ही आँचल है मेरे हित अनमोला।
घुटनों पर लगा टेक बैठी दुःखी जननी।
पिता नहीं संभवत: घर पर कोई सजनी।।
यहाँ – वहाँ यों कोई क्यों माँ से कटु बोला।
रग – रग में बहता जो रक्त जननि का मुझमें।
और कहाँ उफनेगा पीड़ा , माँ के दुख में!!
समझ नहीं भीतर उर सुत का कब है पोला?
धन्य हृदय जो धड़के माँ को दुख में तारे।
अला – बला हर ले सब ‘शुभम्’ अपनपा हारे??
आवंटित जननि -कुक्षि पीड़ाहर शुचि चोला।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’