कविता

नोट बन्दी पर महिलाओं का दर्द

दर्द घना पर आह न निकले,
आँसू भी न नयन से ढलके।
किसको अपनी पीर सुनाये,
जमा पूँजी हाथ से फिसले।
जाने कितने जतन किये थे,
नोट इकट्ठे दफ़न किये थे।
कभी रज़ाई तकिये के नीचे,
चीनी चाय में हज़म किये थे।
सरकार का खेल निराला,
नया खेल फिर कर डाला।
नोट बन्दी कर हमें हिलाया,
छिपा हुआ धन बाहर निकाला।
— डॉ अनन्त कीर्ति वर्द्धन