कविता

अक्स

दर्पण जब भी देखूं मैं, एक छवि दिखलाय,
उस छवि-सा कोई और नहीं, दर्पण मोहे बताय.

कभी-कभी वह पूछता, “क्यों रहतीं हो उदास!”
मैं चुप-सी रह जाती हूं, कहने को नहीं कुछ ख़ास!

कभी-कभी फिर पूछता, “क्यों रहतीं चुपचाप!”
मन की बात कहूं, सुने, कर लेता विश्वास!

कभी-कभी वह पूछता, “क्या खुद पर संदेह!”
नैन मूंद बैठी रहूं, सपनों में भरता नेह!

कभी-कभी फिर पूछता, “कैसे हों सपने साकार!”
शिद्दत से रहूं निहारती, दिखाए कर निर्वार!

अक्स-सा कोई सगा न मेरा, अक्स-सा नहीं मीत,
अक्स से जीवन सजे, अक्स ही जीवन-गीत.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244