समुंदर
रात्रि तंद्रा में
मैं पहुंच गया समुंदर किनारे
कुछ पल बैठा
देखता रहा उसमें उठने वाली लहरों को
एक लहर आती जाती किनारे तक
फिर लौट जाती
साथ में छोड़ जाती कुछ घोंघे
कुछ शंख कुछ सीपीयाँ
यही देखते देखते उतर गया सागर में
ऊपर से अशांत सागर अंदर से था शांत
कोई हलचल नहीं कोई चंचलता नहीं
बस स्थिरता शांत गंभीर
समेटे था अगणित सम्पदा
हर लहर के साथ
कुछ न कुछ फैंक रहा था वापस किनारे आई हर चीज को
कुछ भी तो नहीं कर रहा था स्वीकार
कर रहा था हर बार उनका तिरस्कार ही तिरस्कार
तभी शांत था भीतर से इतना