कविता
उम्मीदों का मापदंड
अथाह गहराई का सागर है
टूटता है जब होकर अधीर, साथ
दर्द का विशाल समुद्र ले आता है
किनारों का क्या है स्थिर रहते हैं
धूप ताप का असर बेमानी है
लहरों का शोर न जाने क्यों
मन की सतह तक को भेद जाता है
पत्थरों पर लगा भीषण घर्षण
पानी से भी निशान बना ही देता है
मापदंड से भी ऊपर बहने लगता है
जब पानी,बाँध खंडित हो ही जाता है
— वर्षा वार्ष्णेय