दीपक की ललकार
तुम दैदीप्यमान चमकती अनुपम वाटिका,
मैं नन्हा सा दीपक हूं मटमैली माटी का ।
तुम आए तो प्रभात लाए, अलख जगाया धरती का,
हम कवि हैं उपमा पाए, तब गुब्बारा फूला छाती का ।
तुम अस्ताचल का साथ छोड़ ,निद्रा का दामन देते हो ,
मैं लपलपाती ज्योति देकर मार्ग बन जाता साथी का।
तुम अचल अविरल अक्षर हो हर पाटी का,
मैं नन्हा सा दीपक हूं मटमैली माटी का ।
तुम आए तो खेतों में ,लख बरसता सोना ही ,
श्रम के कण में दीप सा, चमकता देह का कोन ही,
तब मेरे आगोश में बैठ, चैन की चंद सांसे लेता ,
वह कृषक भरता दम हुक्के का, लगता मुझको बौना ही।
तुम बन जाते श्रृंगार अनुपम हर दुर्गम घाटी का,
मैं नन्हा सा दीपक हूं ,मटमैली माटी का ।
माना तेरे आने से, मेरा एहसास भुलाया जाता है,
तेरी तपिश में जलकर, खुद को छुपाया जाता है ,
तब तमस के दामन में ,मेरा सहवास उनको भाता है,
तू निर्विकार सत्य है, तो है मेरा भी एकाकी से नाता है ,
तेरी पूजा आराधना करें, हर जन सृष्टि का,
मैं नन्हा सा दीपक हूं, मटमैली माटी का।
— नरेंद्र परिहार