गरीब सोच
“क्या हुआ? ललिता,आज भाई की याद कैसे आ गई ?” मायके आई हुई बहन से रामदीन ने कहा।
“कैसी बात कर रहे हो भैया? मैं तो हर दिन आपको याद करती हूँ, बस मिलने नहीं आ पाती। इनके दुनिया से जाने के बाद आप ही तो मेरा सहारा रहे हैं। आपकी मदद से ही तो ज़िंदगी गुजार रही हूँ।”
कैसी बात करती हो? बहन, “मैं आपकी कोई मदद नहीं करता था। मैं बस भाई होने का फर्ज निभा रहा था।”
“करता था , क्यों बोल रहे हो भैया? मैं तो आज भी आपके पास मदद माँगने के लिए ही आई हूँ। मतलब अब आप मेरी मदद नहीं करेंगे?”
“बिल्कुल करूँगा, क्यों नहीं करूँगा? पर तुम तो जानती हो कि अब घर का मालिक तुम्हारा भतीजा अमन है,उससे कहना पड़ेगा।”
“हाँ, मैं समझ सकती हूँ कि अब आप खुद अमन के सहारे हो गए हैं। जब तक आपके हाथ-पैर चले,आपने कभी मदद से मुँह नहीं फेरा और न कभी कोई सवाल किया।”
“ये सब छोड़ो, अमन को ऑफिस से वापस आने दो।मैं उससे बात करूँगा।”
शाम को ऑफिस से घर आने पर जब दरवाजे पर चारपाई पर बैठे हुए अपने पिताजी को अमन ने देखा तो पूछा, “कैसे हैं पिता जी? आज बहुत खुश लग रहे हैं?”
“हाँ, बेटा ! आज तेरी ललिता बुआ आई हैं मिलने।बहन आई है एक साल बाद, खुशी तो होगी ही।”
“अच्छा! तो ये बात है।”
“ज़रा देर मेरे पास बैठ,तुझसे कुछ जरूरी बात करनी है।”
“बताइए, पिताजी ! क्या बात है?”
“तेरी बुआ को दो हज़ार रुपए चाहिए। उसे अपनी बिटिया की फीस जमा करनी है और गेहूँ की बुवाई करने के लिए खाद खरीदनी है।”
“पिताजी, अभी हमारी नौकरी लगे दो ही महीने हुए हैं।मैं पैसे कहाँ से दूँ ? घर की जिम्मेदारियाँ भी तो हैं।”
“बेटा, तुम्हें साठ हज़ार रुपए मिलते हैं। तुम दो हज़ार रुपए नहीं निकाल सकते। मैंने तो खेती और मेहनत-मजदूरी करते हुए जरूरत पड़ने पर सदैव उसकी मदद की। मैं तो पैसे से गरीब था, तुम्हारी तो सोच गरीब है। ठीक है, मैं ललिता को बोल दूँगा कि मदद नहीं कर पाऊँगा।”
— डाॅ बिपिन पाण्डेय