हमारे बचपन के त्योहार
उम्र के इस पड़ाव पर लगता है कि त्योहार बदल गये या फिर हम बदल गये । चलो मान लिया उम्र के साथ नजरिया भी बदल जाता है इसलिए ये कहना गलत है कि त्योहार बदल गये पर आज के बच्चों में तो वो उत्साह व उमंग दिखाई देती ही नहीं , जो पहले दृष्टिगत होती थी। अरे, बचपन में हम कितने उत्साहित हुआ करते थे त्योहारों के प्रति ।
आज बचपन हो या अधिक उम्र के लोग त्योहारों को मजबूरी रूप में लेने लगे हैं जहाँ मजबूरी का विचार जहन में घर कर जाता है वहां से निश्छल लगाव , उत्साह अपने आप कम हो जाता है । चलो आज से चालीस पचास साल पहले का बचपन और उस समय के त्योहारों का स्मरण करते हैं-
सर्व प्रथम दशहरे से ही लेते हैं दशहरे के आठ दस दिन पहले से ही बच्चों की धमाल शुरु हो जाया करती थी उस समय रात्रि में बच्चे झुण्ड बनाकर विभिन्न तरह के खेल खेला करते , कोई राम बनता तो कोई रावण इस प्रकार घरों के चबूतरों पर राम लीला चलती । दिन में घर की लिसाई- लिपाई में बच्चों का सहयोग अद्भुत हुआ करता। दशहरे के दिन सुबह से ही बच्चे रावण बनाने की जुगत में लग जाते । सामग्री के नाम पर कबाड़ से जुगाड़ हुआ करता था । सायं बच्चे रावण जलाते और श्रीराम के जयकारों से पूरा मोहल्ला भर जाता था। क्या दृश्य हुआ करता था सभी के मुख पर दशहरे के राम राम, ‘दिवाली के भारे काम’ सुने जा सकते थे ।
दीपावली पर कपड़े सिलेंगे, पटाखे चलाने को मिलेंगे इससे भी ज्यादा मिठाइयां खाने को मिलेगी, क्या इंतजार रहता सभी नन्हे मु्न्नो को । घर की पुती दीवारों पर राम राम , स्वागतम, शुभ -लाभ आदि लिखे जाते फिर चाहे वो कैसे भी लिखें हों आडे-तिरछे क्या फर्क पड़ता । बच्चों में उत्साह कम नहीं पड़ता और गोवर्धन पूजन के साथ भाई दोज भी ना जाने कब निकल जाती ।
जनवरी में मकर संक्रांति उत्सव भी सुबह चार बजे नहाने से ही शुरु हो जाया करता था । जहाँ सर्दी के कारण बाल्यकाल में सुबह नहाना सबसे बड़ी समस्या हुआ करती पर आज अगर सूर्योदय से पूर्व नहीं नहाओगे तो गधा बनोगे इस डर से, बच्चे अवश्य नहाते , और सभी से संक्रांति के राम राम करना साथ ही सारे दिन गेंद टप्पा, हुल्ल खेलने में बीतता ।
होली को ‘रंगों का त्योहार’ के साथ साथ ‘बच्चों का त्योहार’ कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी । एक महीने पहले होली के डांडे गढ़ने से ही बच्चों की धमाल शुरु हो जाया करती थी । कबड्डी, टिलाउरी (लुका-छिपी) और भी अनेकों खेल उस समय के मुख्य आकर्षण हुआ करते थे ।
ज्यों ज्यों होली नजदीक आती जाती मस्ती परवान चंढ़ती जाती । होली का दिन तो रंग-धूल-कीचड़ में ही मानों बीत जाता । अपनी अपनी भाभीयों से होली खेलने का भी एक अलग अंदाज होता था पर वो अब कहां । ना अब वो भाभियां रही ना अब वो देवर । जलती होली के बीच डांडा (प्रहलाद) को बचाने का दृश्य भी बड़ा ही रोचक हुआ करता था । गणगौर भी लड़कियों का विशेष त्योहार हुआ करता था । यूं तो ये त्योहार आज भी मनाएं जाते हैं पर अब वो बात कहां ?
रक्षाबंधन का त्योहार जो भाई-बहिन का बहुत ही प्यारा त्योहार है । बहिनों का ससुराल से आना भाइयों के राखी बांधना कितना अच्छा लगता था उस समय ।अपनी कलाई में बंधी राखियों की तुलना अपने साथियों की राखियों से करते थे बच्चे। क्या जमाना था वो, जिसमें सहजता का सागर हिलोरें मारा करता था।
लगता है अब बचपन , बचपन नहीं रहा, उसमें बालपन ,नटखटपन व जिद्दीपन दिखाई देता ही नहीं । ना बड़ों को है अब त्योहार मनाने की फुर्सत व ना बच्चों में रहा लगाव ।
हमारे त्योहार शुरू से ही सांस्कृतिक चेतना के प्रतीक रहे हैं । त्योहार हर उम्र के व्यक्ति को ऊर्जा प्रदान करते रहें हैं । पर अब इस मोबाइल संस्कृति ने त्योहारों के स्वरूप में परिवर्तन लाकर खड़े कर दिये हैं । पहले बचपन की खूबसूरती मां-बाप , शेष परिवारजनों के लाड-प्यार से व त्योहारों के आनंद से ही इन्द्रधनुष का रूप धारण करती थी । आज के बच्चों का बचपन रहा ही कहां है ? ना वो आजादी रही ना वो उमंग ना उच्श्रृंखलता उनमें । तो फिर उन बीते बचपन के त्योहारों की कल्पना आज किस प्रकार की जा सकती है । लगता है जब व्यक्ति की उम्र ढलान पर होने को होती है तब उसे बचपन याद आने लगता है । यहां भी शायद कुछ ऐसा ही हो …
— व्यग्र पाण्डे