वोट का सौदा
लघुकथा
वोट का सौदा
“बड़ी दादी, ये लो रख लो। ये आपके काम आएँगे।”
“दो हजार रुपये के नोट ! पर सरपंच बेटा, आप ये मुझे क्यों दे रहे हैं ?”
“दादी, ये आपके काम आएँगे। ये पार्टी वालों की ओर से आपको दिया जा रहा है। आपको तो पता ही है कि अगले मंगलवार को चुनाव है। आप हमारी पार्टी के उम्मीदवार को वोट दीजिएगा। इसके लिए पार्टी की ओर से आपको एक छोटा-सा उपहार दिया जा रहा है।’
“मतलब आज आप मेरा वोट खरीदने आए हैं ?”
“अरे नहीं बड़ी दादी। मैं ऐसा गुस्ताखी भला कैसे कर सकता हूँ ? ये तो बस… मुहल्ले में सभी…”
“बस्स…। बहुत हो गया सरपंच साहब जी। मैं अपने पति की मौत और बेटों द्वारा घर से बेदखल करने के बाद दूसरों के घर झाड़ू-पोंछा कर भले ही अपना गुजारा करती हूँ, पर इसका मतलब यह नहीं कि अपने वोट का किसी से सौदा करूँ।”
”अरी बड़ी दादी आप तो बुरा मान गईं… मैं तो…”
“बस्स सरपंच साहब, आप चले जाइए यहाँ से। मैं आज भी वह दिन नहीं भूली, जब मेरे बेटों ने मुझे अपने ही घर से बेदखल कर दिया, तो आपने मेरी मदद के बजाय बेटों से…. सामाजिक सुरक्षा पेंशन योजना में भी अपना नाम जुड़वाने के लिए भी मुझे क्या कुछ नहीं करना पड़ा और आज मुँह उठा के चले आए, मेरा वोट खरीदने।”
आवाज सुनकर आसपास के लोग भी जमा होने लगे थे। सरपंच ने भी वहाँ से चुपचाप निकलना ही मुनासिब समझा।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़