सीख
वे दोनों बहुत देर से बहस कर रहे थे । तू तू मैं मैं के बीच वह तटस्थ था ।
ज्ञानसिंह कह रहा था– “तुम मुझे पहचानते नहीं हो, मेरे पास एक नहीं बल्कि कई डिग्रियां हैं । मैं समाजसेवी हूँ, पद्मश्री के लिये भी मुझे नामांकित किया गया है । मेरी बीसियों किताबें छपी है । मैं कई भाषाओं में अनुवादक का कार्य कर चुका हूँ ।”
मान सिंह भी व्यंग्य भरी आवाज में हँसते हुए कहने लगा- “मेरे पास भी डिग्रियों की कमी नहीं है, मैं चाहूँ तो बड़े-बड़े विद्वानों को भी शास्त्रार्थ में हरा सकता हूँ । तुम भी ज्ञानी हो, मुझे कहाँ इंकार है ?”
“मैं तो तुम्हारे अंदर अच्छाई ढूँढ़ने का निरंतर प्रयास कर रहा हूँ, संयम का तो नामोनिशान नहीं है तुम्हारे अंदर, आत्ममुग्धा बन अपनी डिग्रियों के पुलिंदे खोलकर भौंडा प्रदर्शन कर रहे हो ! फिर मैं तुझे ज्ञानी कैसे मानूँ ?
“हाहाहा…इसे ही कहते हैं, ‘आँख का अंधा नाम नयन सुख’…।”
वह आगे कुछ बोलता उससे पहले विवेक जोर से चिल्लाया- “चुप करो तुम दोनों खुद को बड़े ज्ञानी और अभिमानी समझते हो, फूलों को कभी खुद की तारीफ करते सुना है ? फिर भी लोग फूलों की सुंदरता और सुगंध के दीवाने होते हैं ।” लज्जित होकर मानसिंह और ज्ञानसिंह दोनों एक दूसरे से मुंह फेर कर बैठ गये ।
विवेक विजेता बन फूले नहीं समा रहा था । मैं दर्शक की भांति तटस्थ भाव से खड़ा ज्ञान, मान और विवेक की नोक-झोंक से सीख ले रहा था ।
— आरती रॉय