विकास की अंधी दौड़
विकास की अंधी दौड़ में मानव -स्त्री रिश्ते बौखलाये से ,
विकास की अंधी दौड़ में दम्पति अहसास रिश्ते सजोये से ,
नारी उन्मुक्त रही बेसुध होकर सब पाने ले श्रेय पिरोये से ।
प्रेमी जोड़ी, लैला मजनू हीर रांझा अब तौर तरीके गुम से
नैतिकता भुले संस्कार रोले बस हर्ष यही बेहतर धुम से ।
अब मानव लाचार पत्नी को सब सुख -ऐश्वर्य सा दे जाने में
दिखाबे की नकली गुडियां बना कर हर लम्हा सब सुनाने में ।
जीवन की हर रेस में खुद को आगे ही पाना नाम की चाहते
मानव को अहं का बोध दे आलसी नकारा सा दिखना आदते।
तनाव भरे पल में या रिश्तेदारी की सांझेदारी में पुरुष दोषी
उसने पति को बाँध जुल्फों अपनी आकलन सी परोसी तोषी।
तुमने लिखी बेइन्तहा, सी असंतुलन बनी जुल्मों की दास्तान,
अपनी तृष्णा की चाह में, आ गया जीवन जीना मन भाया जरूर
घर रिश्ते हुनर जोड़ भेंट चढ़ाये, विशाल चाह पाना होड़ मशहूर ।
रुन्दन कर रहा विधालय भी नव सब ज्ञान रीत त्राहि-त्राहि करे
नर पाया छला अधीर असंतुलन मौसम में . मिला आत्मबल धरे।
आई कैसी सदी की घोर विनाश की उखडती जकड़ती बन सी खड़ी
सर्वोच्च सर्वशक्तिमान मानव खोये अहं और हेकड़ी गाये जो बड़ी।
— रेखा मोहन