कब उठेगी आवाज
मैं चकित हूं,
हैरान हूं,
और निराश हूं,
कि जिन्हें काट डालने थे
हर बंधन स्वेच्छा से
वे अपना लिए बेड़ियां,
बांध डाले अपने ही पैर,
मान रहे थे सबको अपना
जो पग पग जता रहे खुद को गैर,
स्वीकारते आ रहे हर बात आंख मूंद,
वो चूस रहे हर कतरा बूंद बूंद,
दुनिया में आते ही बंधन,
न कभी हाथ में हथियार और
न कभी जेब में धन,
फिर भी हँस-हँस ढो रहे
औरों के बनाये परिपाटी,
जैसे ही हावी होते दिखे
विरोधी पीटने लग जाते छाती,
मोह को तरसना भी
होते हैं गुनाह,
निश्छल बह पड़ते हैं जब
कोई उड़ेल दे बनावटी प्रवाह,
क्यों भूल रहे हो
स्वच्छंदता तुम्हारे लिए भी है,
विरोधियों,लालचियों,लंपटों से
उम्मीद क्यों जो हमेशा शूल दिए हैं,
पिता होकर भी,
पति होकर भी,
और पुत्र होकर भी वो
लादने को तत्पर तब,अब और आगे भी
भयावह बंदिशें,
बस जिये जा रहे हैं
भूलकर हर हक़-अधिकार,
मानवीय स्वीकृति और ख्वाहिशें।
— राजेन्द्र लाहिरी