कहानी

मनुष्य और भेड़िये के स्वरूप पर विचार

अख़्बारों की सुर्ख़ियों पर नज़र दौड़ाते दौड़ाते मैं एक सुर्ख़ी पर रुक गया। वह जर्मनी में भेड़ियों की बढ़ती संख्या के बारे में थी। मैं आगे पढ़ने लगा तो पता चला कि आज (अक्टूबर 2023) इस देश में अनुमानित तौर पर 1300 भेड़िये रहते हैं। यह आंकड़ा देख के जर्मनी के लोग तालियां बजाते होंगे। और उनकी ख़ुशी बेवजह नहीं है। दरअसल मनुष्यों की प्रगति से पीड़ित मौलिक प्रकृति संभल रही है, सुधर रही है, खिल रही है, अपना पुराना रूप ले रही है। अब तो जर्मनी का प्रत्येक नागरिक चांदनी रात में अपनी बीबी को लेकर, कहीं जंगल के किनारे बैठ भेड़िये की पुकार सुन सकता है – ‘ऊ-ऊ-ऊ!!’ इतनी भयानक पुकार कि रौंगते खड़े हो जाते हैं, सिहरन होने लगती है। लेकिन साथ ही साथ कितना रोमांचक अनुभव, आनेवाले चुनाव की जैसी सुगबुगाहट। यही है असली मौलिक प्रकृति का सौंदर्य! घबराहट, आतुरता और उत्सुकता मन पर सवार हो जाती हैं। अरे, बड़े बड़े नगरों के कौन वासी हैं जो तारकोल के बदबूवाले मार्गों और फ़ुटपाथों, कंक्रिट और शीशे के कुरूप ढांचों से तंग आकर ख़ुद को किसी अछूते जंगल में पाने का सपना न देखते हों! कुछ ऐसा जंगल जिधर वृक्षों के बीच में पगडंडियां तक न हों, तरह तरह के वनजीव मिलते हों और जिधर वास्तविक भेड़िये शिकार की तलाश में घूम रहे हों! ये वही भेड़िये जो जर्मनी में अभी हाल में अपना अस्तित्व खोने की कगार पर थे! और घबराने की कोई ज़रूरत नहीं। हमने तो पढ़ा है कि भेड़िये लोगों पर हमला यूं ही नहीं करते। उनको न छेड़ा जाए, पर्यप्त खाना उपलब्ध कराया जाए तो वे हमारी प्राकृतिक सुंदरता में चार चांद लगा देंगे।

     लेकिन जर्मनी में कुछ गड़बड़ी हुई है। भेड़िये तो शाकाहारी नहीं हैं। उन्हें गर्म ख़ूनवाला ताज़ा गोश्त दरकार है। भेड़ियों के झुंड बढ़ गए हैं। और वे क्यों न बढ़ें? एक तो भेड़ियों को बड़ी संख्या में देश में लाया गया। फिर जर्मनी अमीर देश है, खाने का अभाव नहीं। यहां तक कि पड़ोसी देशों से भी भेड़ियों ने खाने का गंध सूंघ कर आमंत्रण के बिना ही जर्मनी के जंगलों में घुसपेठ किया। धीरे—धीरे भेड़ियों ने जंगल के जानवरों को ख़त्म करके जंगलों के बाहिर शिकार पर निकल गए। गांव वालों ने शिकायत की कि भेड़िये बकरियों और भेड़ों को चुरा चुरा कर अपनी भूख मिटाने लगे और आख़िरकार तबेलों में घुसकर गायों पर टूट पड़ने की नौबत आई। स्पष्ट है – गड़बड़ हो गया।

     अचानक हर फटे से हिंसा और नफ़्रतवादी निकल पड़े। और अपनी घृणा को लेकर मुखर हो गए। कहने लगेः

  • उन भेड़ियों को गोली मार कर ख़त्म करना चाहिये! कल ही उनका शिकार करने जाएंगे! झटपट और सख़्ती से काम निबटाएं!

     यह सुन कर प्रकृति के प्रेमी भड़क उठे। भेड़ियों के बचाव के लिये उनके संगठन उतावले हो गए। देश में गरमागरम बहस छिड़ गई। सारे समाज में दो असमान भागों में बंटवारा हो गया। माहौल तीखा हो गया। चरमपंथी अल्पमत में थे। चिल्ला रहे थेः

  • आज ये भेड़िये हमारी गायों को काट कर मार डालते हैं तो कल उनका जी चाहेगा कि इंसानी मांस चख लें!

     इस विकृत तर्कसंगती को तो देखो! और अधिकतर जर्मनी लोग ‘ये तो हमारे छोटे भाई-बहन जैसे हैं!’ कह कर पशुओं के प्रति इस क्रूरता के विरुद्ध खड़े हो गए। पशु कल्याण संगठन की प्रतिक्रिया विशेषकर तीखी रही। वे आगबबूले हो उठेः

  • किसी भी प्रानी की जान लेने और हिंसा की बातों की घोर निंदा की जानी चाहिये! हम तो सभ्य लोग हैं, कोई बर्बर बन-मानूस नहीं! जो तत्व भेड़ियों का सफ़ाया मांग रहे हैं, उन ख़ुद को गोली मार दी जानी चाहिये! या कम से कम उनका मुंह बंद कर के उनकी नसबंदी की जाए!

     इन शब्दों को लेकर मानव अधिकार संगठन इस विवाद में हस्तक्षेप कर के सक्रिया प्रतिक्रिया व्यक्त करता तो अच्छा होता। लेकिन फ़ासीवादी-उग्रवादी तत्वों की नसबंदी के विचार को सुनकर उन्होंने शालीनता बरती और तटस्थ होकर चुप रहे। पर उनका रवैया तो एकदम स्वाभाविक है। जो भेड़ियों की कतल की मांग कर रहे हैं उनको ‘मानव’ कहना उचित नहीं। लिहज़ा, औपचारिक और नैतिक, हर दृष्टि से, उनकी चुप्पी सही थी।

     समाज में छिड़ी बहस में एक अनजाना समूह ‘भेड़ियों से दोस्ती और एकजुटता का लीग’  भी जुड़ गया। इसके सदस्यों ने अपने देशवासियों को इन प्यारे पशुओं के अनगिनत गुणों से अवगत कराया, जैसे – सर से दुम तक सुंदर सलेटी रंग के बाल, पैनी नज़र, संवेदनशील श्रवण तथा तेज़ दांत। संक्षेप में लीग की मानें तो उनके गुणों का बखान करने के लिये विशेषण छोटे पड़ जाते हैं। उन्होंने आगे कहाः

  • ये बढ़िया शिकारी हैं, उनके परिवार अनुकरणीय हैं। उनके मुखियों के पास शानदार नेत्रित्व गुण हैं। सारा झुंड अपने आकाओं का पूर्ण अनुकरण करता है और उनकी एक ही पुकार पर जान देने को तैयार होते हैं। फिर ये बड़े नैतिक मूल्य रखते हैं। क्या किसी को कभी शराब के नशे में धुत भेड़िया मिला? क्या किसी ने नहाने के बीच पर भेड़िये की मादों को मीनी-बिकीनी पहने देखा? हम लोग भेड़ियों से बहुत कुछ सीख सकते हैं, या यूं कहा जाए कि सांस्कृतिक आदान-प्रदान कर सकते हैं। हम एक दूसरे के पूरक हो जाएंगे। हमारी दोनों संस्कृतियां साथ साथ रह कर हमारे जीवन को नये रंगों में रंगा सकती हैं।
  • और काटे गए मवेशियों का क्या होगा? – फ़ासीवादी-उग्रवादी शांत हो जाने का नाम ही नहीं ले रहे थे। और अपने कठोर रुख़ में ढील देना नहीं चाह रहे थे। उनको ‘नसलवादी’ करार दिया जाए तो ज़्यादा सही रहेगा, क्योंकि सब जानवरों में से उन्होंने अपनी हिंसा और घृणा का निशाना भेड़ियों ही को बनाया है। गिल्हड़ियों, साहुओं, हाथियों, दरियाई घोड़ों आदि आदि से उनका कुछ भी लेना देना नहीं। उनका यह भेड़ियाफ़ोबिया सही मायनों में नसलवाद है। वे भेड़ियों के प्रति पूर्वाग्रह में ग्रस्त हैं।

     ‘काटे गए मवेशियों’ से संबंधित सवाल का जवाब पशु कल्याण संगठन ने दिया। वे बोलेः

  • प्रकृति ने हर एक प्राणी को इस संसार में अपनी अपनी भूमिका सौंप दी है। कोई पौधों के बीच फूल-पराग फैलाता है, तो कोई प्रकृति में संतुलन बनाए रखने में लगा हुआ होता है। भेड़ियों को मिटाया जाए तो संतुलन भी भंग। और हमारी दुनिया उजड़ जाएगी!

     पशु रक्षकों ने बड़े तार्किक रूप से बताया कि लोगों के पास घरेलू पशुओं की कमी नहीं। फिर जर्मनी एक धनवान देश है। इस लिये यदि थोड़ा धन हमारे छोटे भाई भेड़ियों को मिल जाए तो किसी को आपत्ति नहीं होगी।

  • यही नहीं, – पशु रक्षकों ने इस बात पर विशेषकर ज़ोर देकर बताया, – हमें कुछ अतिरिक्त भेड़ियों को ले आना चाहिये, ताकि लोगों को सद-भव का पाठ दिया जाए, दूसरों का ख़याल रखना सिखाया जाए और वे निजी संपत्ति की विचारधारा को छोड़ कर अपने नैतिक धर्म का निर्वाह करें तथा पुण्य के भागीदार बनें।

निजी संपत्ति वाले उर्फ़ कृषक भड़क उठेः

  • अतिरिक्त भेड़िये? पागल हो गए क्या? क्या हमें तड़के से आधी रात तक कमर तोड़ कर श्रम करते रहना है ताकि आपके छोटे भैया आराम से पेट भर खाएं? वे ख़ुद अपने लिये मवेशियों का पालन करें! हम से बड़ी अपेक्षा न पालना!

     तर्क-वितर्क की इस अंधेरगर्दी के माहौल में चमका हुआ यह बुद्धि-संपन्न विचार बहुतों को अच्छा लगा। ‘अखिल गर्व समाज’ ने इसका पूर्ण रूप से समर्थन किया। बहस ने अप्रत्याशित मोड़ ले लियाः

  • भेड़ियों को सभ्य व्यवहार सिखाया जाए! हम तो अच्छी तरह जानते हैं कि ये कितनी आसानी से पालतू बन जाते हैं।!

     ‘भेड़ियों से दोस्ती और एकजुटता लीग’ के सदस्य न जाने क्यों चुप रहे। शायद सबूत खोज रहे थे। और ज़रूर पालतू भेड़ियों की संख्या इतनी बड़ी निकली होगी कि सारे तथ्य प्रस्तूत करने में कुछ देर लगी।

     ‘अखिल गर्व समाज’ के सदस्य उत्साहित होकर बोलते गएः

  • बेचारे भेड़ियों ने मवेशियों को इस लिये मारा कि भूखे नंगे थे। जीवित रहने के लिये उनके पास और कोई विकल्प नहीं रहा। मारो या मरो! लेकिन अगर उन्हें पर्याप्त भोजन मिले तो हम भेड़ियों को लोगों के साथ सहयोग करना सिखाएंगे! कृषि, उद्योग, निर्माण क्षेत्र में उनहें काम करवाएंगे! और वे स्वयं अपनी आय अर्जित करेंगे, अच्छा आचरण करेंगे। हम उनहें पढ़ना-लिखना और जर्मन भाषा में बात करना भी सिखाएंगे! आगे चलकर वे अंतरिक्ष में उड़ान भरेंगे! हमारी बात याद रखना!

     इस विचार से प्रेरित होकर ट्रेड यूनेनों के नेताओं की कल्पना को पंख लग गए। उन्होंने यह नारा भी लगायाः

  • हर गृह में भेड़िया! जर्मनी के सब लोग अपने अपने घरों में कम से कम एक भेड़िये को जगह दें! लेकिन अगर भेड़ियों के एक पूरे परिवार का स्वागत किया जाए तो कहीं बेहतर होगा! मानवीय समाज में उनके ढलने-घुलने के साथ उनके परिवर्तन की प्रक्रिया में तेज़ी आ जाएगी और दो-तीन पीढ़ियों के बाद हमें समाज के पूर्ण विकसित सदस्य मिलेंगे, जिनका घटती जा रही प्रजनन दर के कारण बड़ा अभाव महसूस हो रहा है।
  • हे? – विज्ञान अकादमी के सदस्य सकते में आ गए, – यह कैसे हो सकता है? ये विचार पूरे होश में कहे जा रहे हैं क्या? जब नाश मनुज पर छाता है, पहले विवेक मर जाता है! यह विज्ञान के एकदम विपरित है! भेड़िये और मानव विभिन्न जीव हैं!
  • आपके अहंकार की कोई हद नहीं! – पशु रक्षक बिफर पड़े, – आप लोग तो फिर से नसली वर्चस्ववाद के ढंढोरे पीटने लगे! इसके अतीत में क्या परिणाम हुए हम सब देख चुके हैं।
  • अरे तो… – वैज्ञानिकों ने चूं करने की कोशिश की, – भेड़िये तो लोगों की कोई नस्ल नहीं, जानवरों की एक प्रजाति …।
  • नसल, प्रजाति… क्या फ़रक पड़ता है! आप लोग नाज़ियों के सिद्धांतों का प्रचार कर रहे हैं! आप तो ख़ुदा न ख़्वास्तः हमें यह प्रस्तावना देंगे कि हम किसी जर्मनी नागरिक और भेड़िये की खोपड़ी नाप कर तुलना करें! छीः, कितने घिनौने विचार हैं!… हम मानते हैं कि भेड़ियों को काम करना नहीं आता, फ़सल उगाना, चीज़ें बनाना, सृजन करना नहीं आता। मगर सिर्फ़ इस लिये कि किसी ने उन्हें यह सब नहीं सिखाया, रचनात्मक श्रम का सौंदर्य नहीं दिखाया! वे तो हमारी तरह परिवार बनाते हैं, प्रेम करते हैं, परेशान होते हैं, पीड़ा में जन्म लेते हैं और जीवित बचने के लिये संघर्ष करते हैं।
  • हां, हां, वही हम भी कहते हैं! – फ़ासीवादी कृषक हार नहीं मान रहे थे, – वे हमारे ख़र्चे पर जीवित हैं! समस्या का एक ही समाधान है – सब का अंत करना! कोई भी न बचे! चलो, एक-दो भेड़ियों को चिड़िया-घर में रखा जा सकता है।

हिंसा के इस तांडव के बीच बहस से ‘उदारपंथी प्रगतिवादी वकील संघ’ भी जुड़ गयाः

  • कुछ सिरफिरे भेड़ियों ने छिटपुट गायों को मार कर खाया और सारे झुंड को इसका खमियाजा भुगतना पड़ेगा? यह सामूहिक दंड निर्दयी और अमानवीय है! जंगल में एक कमांडो दस्ता भेजा जाना चाहिये कि वह अच्छी तरह सघन जांच करे, भेड़ियों के चुंगलों (क्षमा करें – पंजों) के प्रिंट लें, जिनेटिक विश्लेषण करें और अप्राधी को निर्धारित करें। तब उसे झुंड की इजाज़त से अदालत में पेश किया जाए और यदि अप्राध में उसकी संलिप्तता साबित हुई तो कानून के अनुसार सज़ा दी जाए और पिंजरे में डाला जाए। भेड़िये भी तो जीवित प्राणी हैं। उनके अधिकार छीन लेना अन्याय है। फिर भेड़िये की मादा और बच्चों का क्या दोष है? उन्हें सज़ा की बजाय सरकार की तरफ़ से मदद दी जानी चाहिये!
  • और हमें जो चपत लगी है उसका हरजाना किसे भुगतना होगा? – कृषक अपनी ज़िद पर अड़े रहे।

जर्मन समाज में बहस जारी है।

— डॉ. गेनादी श्लोम्पेर

डॉ. गेनादी श्लोम्पेर

मैं इज़रायल में रहनेवाला हिंदी शिक्षक हूं, तेल-अवीव वि.वि. के पूर्वी एशिया विभाग में कार्यरत। हिंदी में मेरे अनेक लेख और हिब्रू भाषा से हिंदी में अनुवाद छपे हैं।