कविता

हूँ …मैं

अपने डर से बहुत -बार लड़ा हूँ…. मैं ।

जीने की हर कोशिश में बहुत -बार मरा हूं मैं।

सैकड़ों बार टूट -टूट के

फिर उन टुकड़ों को जोड़ कर जुड़ा हूँ.. मैं।

अपने डर से बहुत -बार लड़ा हूँ…. मैं ।

अपनों ने ही खींचे थे पाव।

सैकड़ो  बार गिरकर लड़खड़ाते हुए फिर भी खड़ा हूँ ..मैं।

मिले तो थे हाथ साथ मगर।

जिंदगी की राह पर फिर भी अकेला चला हूँ.. मैं।

अपने डर से बहुत -बार लड़ा हूँ…. मैं ।

सवाल बन के क्यों…रह गई जिंदगी।

हर  उस जवाब की तलाश में अब चला हूँ…मैं।

उम्मीदों से छुड़ाकर हाथ अपना।

आज आपने साथ पहली बार चला हूँ…मैं।

— प्रीति शर्मा ‘असीम ‘

प्रीति शर्मा असीम

नालागढ़ ,हिमाचल प्रदेश Email- [email protected]