तांडव
क्या आपको नहीं लगता कि
एक तांडव की आज बहुत जरूरत है,
क्योंकि धरती का कुछ भाग
बहुत ही श्याह और बदसूरत है,
मगर किसे तांडव करना चाहिए,
उन्हें जो पुरुषवादी सोच के कारण
भ्रमित-चकित न रह सुधरना चाहिए,
जी हां आज आवश्यकता है
एक स्त्री को तांडव करने की,
आधी आबादी की दशा सुधारने की,
अब तक के नर कार्यों से
क्यों नहीं आभास किए,
आंख मूंद क्यों विश्वास किए,
क्या गिना सकता है कोई
उसने कितने जख्म दिए,
क्या गिना पाओगी?
या उन्हीं बेरहमों की बाहों में समाओगी,
अपने रास्ते,अपने नियम
तुम्हें खुद बनाने होंगे,
मस्तिष्क में खेलते बदमाशों को
तक्षण सम में लाने होंगे,
सम ही क्यों उनसे भी ऊपर ही रहो,
जो करना है कहना है खुल के कहो,
आदमी पता नहीं कब से
सीमाएं लांघ गए हैं,
हर स्तर पर तुम्हें बंधनों में बांध गए हैं,
अब सोचना तुन्हें है,
अपने वर्चस्व के लिए,
अपने अधिकार के लिए,
अपनी अस्मिता के लिए,
बंधन हो, मुंह हो,
जिसका भी नोचो
नोचना तुन्हें है।
— राजेन्द्र लाहिरी