सास-बहू की पहली होली
मस्ती के माहौल में छलकीं ख़ुशियाँ थीं चहुँ ओर,
रंग लगा एक-दूजे को, भागम-भाग थी हर छोर।
चरण-स्पर्श को झुकी बहुरिया पाने को आशीष,
सासू जी भी दिया तुरंत, धर हाथ बहू के शीश।
जाने क्यों पर इक चुप्पी, पसर रही दोनों के बीच,
कौन किसे रंग डाले पहले, सोच-सोच रहा वक़्त था बीत।
सकुचाई, लज्जाई बहुरिया ख़ुद को रोके थी अगर,
दूजी ओर सासू की पदवी रोक रही थी उसकी डगर,
थीं व्यस्त औरों के संग, फिर भी थी इक-दूजे पे नज़र,
माँ-बेटी-सी प्यार की गंग पर नहीं बही थी अभी इधर।
सब थे चूर अपनी मस्ती में, नहीं थी उनको कोई ख़बर,
तन थे दोनों के भीगे-से पर मन हुआ न स्नेह से तर,
कशमकश थी जारी, क्यों रह गयी इनमें कोई कसर,
जादू-मंतर हो जाये कोई, चढ़े अंतस् पर रंग ज़बर।
— डॉ. पूनम माटिया