ग़ज़ल
जिन्दगी की झील में पानी नहीं बस रेत है
रेत में पदचाप बिन चलती रही है जिन्दगी।
हमने अपनी चाहतों की एक दुनिया ढूंढ ली,
तिश्नगी में दूर तक पलती रही है जिन्दगी।
जिन्दगी तुझसे कोई शिकवा, शिकायत है नहीं,
बस नदी की धार सी बहती रही है जिन्दगी।
हारी बाजी जीतने की कोशिशें फिर – फिर चली,
आइने में खुद -ब-खुद ढलती रही है जिन्दगी।
जिस शजर की छांव में सबको पनाहें मिल रही,
उन दरख़्तों संग – संग चलती रही है जिन्दगी।
थे बहुत पर्वत – शिखर व ग्लेशियर भी राह में,
धीरे-धीरे बर्फ सी गलती रही है जिन्दगी।
मैं सफर में था मुकम्मल वो जहां पा जाऊंगा,
रास्ते – दर – रास्ते चलती रही है जिन्दगी।
मुझमें भी बहना नदी का हो सके तो क्या खता,
एक मृग की प्यास सी छलती रही है जिन्दगी।
— वाई. वेद प्रकाश