होली
होली दो शब्दों का संकलन है, हो+ली जहाँ “हो” का अर्थ है… विस्मय, आश्चर्य, चकित होना इत्यादि। जब भी मन अचंभित होता है और वह ताज्जुब से भर जाता है, वही है “हो”। “ली” का अर्थ है, मूलतत्त्व में घुल जाना, मौलिकता में लीन हो जाना। जैसे, नदियों का अपने मौलिक स्रोत सागर में लीन हो जाना, “नद्यः सागरे लीना भवन्ति”।
हमारे जीवन का अस्तित्व है, आत्मा। वो आत्मा जो सभी जीव-प्राणियों में जीवन ऊर्जा का संचार करती है। ये जीवन ऊर्जा आती कहाँ से है, उसका मूल स्रोत क्या है, तो कहा कि आत्मा का मौलिक स्रोत है, परमात्मा। हम परमात्मा से आए हैं और परमात्मा में ही विलीन हो जाएंगे। परमात्मा मूल उद्गम है।
यही कारण है कि हमारे सभी त्यौहार किसी न किसी रूप में परमात्मा से जुड़े हैं। भारतवर्ष में ऐसा कोई त्यौहार नहीं है तो परमात्मतत्त्व से जुड़ा न हो। हम त्यौहार केवल मौजमस्ती के लिए नहीं, हम त्यौहार परमात्मा को याद करने के लिए मनाते हैं। इसलिए अपने त्यौहारों को उत्सव कहते हैं। उत्सव का अर्थ है, उत्स+व, जहाँ “उत्स” का अर्थ है, स्रोत, उद्गम और “व” का अर्थ है, परमात्मा, हमारा बल, हमारी ऊर्जा, हमारी ताकत। त्यौहार के रूप में परमात्मा को याद किया, उस स्मृति का पर्याय है उत्सव। उन उत्सवों में से एक उत्सव है, होली या होलिका। होली का उत्सव अग्नितत्त्व से जुड़ा है। अग्नि की पवित्र चिता ही बन जाय परमात्मा का चिंतन, होली ऐसा त्यौहार है।
मूलरूप से अग्नि दो रूपों में प्रकट होती है। पहला, शोणित वर्ण मिश्रित हिरण्य प्रभा। दूसरा, कालिमा से रंगा धूम्र या काला धुआँ। अपने स्वर्णिम गर्भ में लाल/पीली प्रकाश की छटा में काले रंग के धुएँ को संजोये अस्तित्व का नाम है अग्नि। अग्नि में धुआँ प्रतीक है तमस, जड़ता, आलस, अज्ञान, प्रमाद और भ्रम का तथा हिरण्यवर्ण प्रतीक है ब्रह्म का, सत्य का, परमात्मा का। इसे ही ईशावास्योपनिषद कहता है, “हिरण्यमय पात्रेन सत्यस्य अपिहितं मुखम्”। इसका अर्थ है, सत्यब्रह्म का मुख हिरण्यमय पात्र से ढँका है। यदि इस पात्र की हिरण्य प्रभा को पूरा देखना है तो इसे मुक्त करना होगा, तमसतत्त्व के धूम्र से। वह धूम्र जो प्रकट होता है हमारे भीतर बसे काम-क्रोध-लोभ-मोह से, अज्ञान की जड़ता से, माया की चमक में रमे रहने से। इस धूम्र के कारण ही हमें परमात्मा पूरा का पूरा नहीं दिखता। और यदि धूम्र का घनत्व अति प्रबल है तो परमात्मा दिखता ही नहीं। हममें से अधिकतर लोग इसी श्रेणी में आते हैं। कोई बिरला ही इस धुएँ की पर्तों को उघाड़ पाता है…
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेनमाश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित्।।
__श्रीमदभगवदगीता २.२९
सत्य के गूढ रहस्य के बारे में कृष्ण कहते हैं, कोई इस शरीरी को आश्चर्य की तरह देखता है। उसी प्रकार अन्य कोई इसका आश्चर्य से अभिभूत होकर वर्णन करता है। अन्य कोई इसको आश्चर्य की तरह सुनता है और कोई इसको सुनकर भी नहीं जान पाता।
यही है वो “हो” जो होली में छिपा हुआ है। सत्य है भव्य, दिव्य, उदात्त। वही है चेतना का उन्नत शिखर। जब वह प्रकट होता है तो चित्त विस्मय से भर जाता है। कृष्ण कहते हैं कि उस विस्मयी तत्त्व के बारे में कितना ही जान लो, उसका ठीक-ठीक वर्णन नहीं कर सकते। क्योंकि सत्य अनुभूतिगत अस्तित्व है, वह शब्दों में प्रकट करते ही बिखर जाता है। फिर हमें आश्चर्य होता है कि उसे बताने में कहाँ चूक हो गई।
इस आश्चर्य में विभोर हो जाना ही होली है। उस होली का नाम है आत्मा, विशुद्ध श्वेतवर्णीय शिवत्व की छटा। यह संयोग है या सत्य का अनुभव, अंग्रेजी में भी होली को पवित्र कहते हैं। इसे कैसे देख और समझ पाएं, तो भारतवर्ष के मनीषियों ने कहा कि उसे धूम्ररहित स्वर्णिम अग्नि के प्रकाश में देखो। वह प्रकाश सात रंगों का बना है। विज्ञान ने कहा कि वे सात रंग हैं, बैंगनी, जामुनी, नीला, हरा, पीला, नारंगी, लाल। जब ये सभी रंग हमारे भीतर काम-क्रोध-लोभ जैसी कालिमा को शिवत्व के रंगों रंगकर उन्हें अपने जैसा कर लेते हैं और फिर आपस में मिलकर विलीन हो जाते हैं, तब श्वेत रंग की कल्याणकारी प्रभा प्रकट होती है। उस श्वेत और पवित्र प्रभा का नाम है शिव। शिव ही हमारे उत्स हैं और होली शिवत्व के रंगों में रंग जाने का उत्सव है।
— मदन गोपाल गुप्ता “अकिंचन”