सूप पर हँसने लगी है चलनी
सूप पर हँसने लगी है चलनी
जिसमें खुद है छेद बहत्तर
दिखा रहे पर खुद को इतर
उँचे हो गये पीढ़ा चढ़कर
आत्मप्रशंसा खुद ही कर – कर
कोस रहे औरों को जमकर
नहीं देखते अपनी करनी
सूप पर हंसने ………………
खुद का घर जिनका शीशे का
फेंक रहे औरों पर पत्थर
सम्भल न पाता अपना घर पर
ताक – झांक करते हैं घर – घर
पीट – पीट कर ताली कहते
जस करनी तस भरनी
सूप पर………………………..
कभी किसी को छोड़ रहे हैं
कभी किसी को जोड़ रहे हैं
दिखा रहे हैं खेल तमाशा
फेंक – फेंक कर अपना पासा
किये सांप – छछूंदर सी गति
हृदय कर दिये छलनी
सूप पर हंसने…………………
लोग हो गये अवसरवादी
धारण करके चोला खादी
दिखा रहें आँखों में सपना
स्वार्थ सिद्ध पर करते अपना
जाति धर्म मेें बांट रहे हैं
बांट रहे घर धरणी
सूप पर हंसने………………….
जागो जनता भोर हो गई
किरण बातों से बोर हो गई
खोलो अपनी मति के पट को
सारे भ्रम को झट से झटकों
सोचोगी तो ही समझोगी
यह माया है ठगनी
सूप पर………………………..
— किरण सिंह