मतलबी दुनिया
जिंदगी भर इंसान है अंतर्मन से रोता,
पर अपने जज़्बात को नहीं किसी को बताता,
एक न एक बार जरुर है वो सोचता,
अगर ये मैं पाता तो वो न मैं खोता।
हर रोज़ कर्म अपनी तरफ से अच्छा करता,
किसी के लिए वो अच्छा ,
तो किसी के लिए वो बुरा हो जाता,
जब कुछ बुरा होता तभी उसके बारे में एक बार जरूर सोचता।
इस मतलबी दुनियादारी में,
वो अपने मन को बहलाता,
पर मतलबी लोग मतलब निकाल के,
उसके मुंह पे मारते आजकल करारा तमाचा।
फिर अपने मन को स्थिर रखने को,
इंसान सबके सामने हंसता,
दुनिया वाले फिर भी नहीं छोड़ते,कहते हंसे क्यों,
पर ऊपर वाला सबका हिसाब अपने पास जरूर करता।
स्वरचित एवम अप्रकाशित रचना
— डॉ. जय महलवाल