पसंद
लघुकथा
पसंद
शादी के बाद आज नेहा की रसोई में पहला दिन था। वह समझ ही नहीं पा रही थी कि सब्जी में क्या पकाए ? फायनली उसने डिसाइड किया कि अपनी सासु माँ से ही पूछ ले। सासु माँ के पास जाकर उसने पूछा, “माँ जी, आज मैं सब्जी में क्या बनाऊँ ?”
“बेटा, ये होटल तो है नहीं कि हम लोगों के सामने मीनू रख कर आर्डर लेते रहें और तुम कोई वेटर नहीं, इस घर की गृह लक्ष्मी और गृह स्वामिनी हो। तुम्हें यूँ सबसे पूछते फिरना अच्छा नहीं कि सब्जी में क्या पकाएँ ? कच्ची सब्जियाँ फ्रीज़ में रखी हुई हैं। देख लो, जो तुम्हें बनाना आता है, वह बना लो। हम तो कुछ भी खा लेंगे।” सासु माँ ने एकदम सहज भाव से कहा।
“पर माँ जी, मैंने तो सुना है कि रमेश जी खाने-पीने के मामले में बहुत ही चूजी हैं। इसलिए पूछ रही थी।” धीरे से नेहा बोली।
“हाँ तो ठीक है न ? तुमको भी तो उसी ने पसंद किया है। अब तुम्हारी पसंद को भी उसे पसंद करना पड़ेगा। हम तो उसकी पसंद की बहुत खा चुके। अब तो तुम्हारी पसंद की खाएँगे।”
“बस बेटा, थोड़ा-सा ये ध्यान रखना कि खाने में मिर्च-मसाले कम यूज करना। डॉक्टर ने हमें ज्यादा मिर्च-मसाले यूज करने से मना किया है।” इस बार नेहा के ससुर जी ने प्यार से कहा।
“जी पापा जी, मैं ध्यान रखूँगी।” नेहा बोली।
“और हाँ ये माँ जी, पापा जी नहीं, सिर्फ माँ, पापा ही बोला करो। और हाँ, घर में इतनी भारी-भरकम साड़ी पहनने की जरुरत नहीं। जिसमें तुम कम्फर्टेबल फील करो, वही पहना करो। चाहो तो तुम अपने मायके में जैसे कपड़े पहनती थी, यहाँ भी पहन सकती हो। अब जाओ फ्रीज़ में सब्जी देख लो, जो बनाना हो, ले आओ हम खाली बैठे हैं। सब्जी काट देंगे। तब तक तुम दाल-चावल बना लेना।” सासु माँ ने प्यार से समझाते हुए कहा।
नेहा सोच रही थी कि कुछ किताबों में पढ़कर और सहेलियों से सुनकर वह सास-ससुर के बारे में किस प्रकार पूर्वाग्रह से ग्रसित हो चिंतित थी।
“ठीक है माँ। मैं अभी आई।” नेहा मुस्कुराते हुए बोली। उसने नजर उठाकर देखा, तो सास-ससुर में उसे अपने मम्मी-पापा की ही छबि नजर आई।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़