नई परंपरा
नई परंपरा
“बेटा, अब अपने दाहिने पैर से इस कलश को ठोकर मारकर लुढ़काओ और गृह-प्रवेश करो।” नवविवाहित पुत्र और पुत्रवधू की आरती उतारने के बाद निर्मला जी ने अपनी बहू से कहा।
“माँ जी, इजाजत हो तो आपसे एक बात पूछनी है।” सकुचाते हुए नववधू नेहा ने कहा।
“हाँ हाँ, जरूर पूछो। क्या पूछना चाहती हो ?” निर्मला जी ने कहा।
“माँ जी, क्या इस चावल से भरे हुए कलश को पैर से ही लुढ़काना जरूरी है ?” नववधू नेहा ने पूछा।
“हाँ बेटा, सदियों से यह परंपरा चली आई है।” निर्मला ने बताया।
“माँ जी, यह कैसी परंपरा है जिसमें नवागंतुक गृहलक्ष्मी अन्न को पैर से ठोकर मारकर गृह प्रवेश करे ? यह तो कलश और उसमें भरे अनाज का निरादर हुआ न ? यदि आपकी इजाजत हो, तो मैं इसे बिना लुढ़काए अपने हाथों में पकड़ कर गृह प्रवेश करना चाहूँगी। या फिर लुढ़काना ही है तो पहले इसके नीचे कागज या कपड़ा बिछाकर लुढ़काऊँगी, ताकि उसे फिर से आसानी से उठा सकें।” नेहा ने कहा।
आसपास की औरतें खुसुरफुसुर करने लगीं, पर बहू की बात सुनकर निर्मला जी का हृदय गदगद हो गया। उन्होंने अपनी बहू को बाहों में भरकर कहा, “जरूरत बेटा, तुम इसे अपने हाथों में पकड़ कर गृहप्रवेश कर सकती हो। परंपरा का क्या है, वह तो नई भी बनाई भी जा सकती है।
डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर छत्तीसगढ़