सूखे पत्ते
मिस्टर शर्मा और कमल कांत बचपन के साथी तो थे ही आज भी सुख दुख के साथी हैं | दोनो नियम से सूरज का उगना और अस्त होना देखना नहीं भूलते| दिन ढ़लते ही दोनों टहलने निकल पड़ते और पेड के नीचे पड़ी बेंच पर बैठ सूर्य के बदलते रंगो को निहारते और अपनी आप बीती सुनाते | चिड़ीयों की चहकन के साथ पुन: सूर्य की नवल रश्मियों से मिलने निकल पड़ते | नदी के तीरे सूर्य दर्शन कर थोडी देर आकर पार्क में अपनी पुरानी जगह बैठते | कुछ देर योगा फिर बनावटी हँसी का अभ्यास |
आज कितनी सुंदर हवा चल रही है कमलकांत !
हाँ शर्मा ! आज टहलने में आनंद आ गया |
दोनो बैठ के बतियाते हैं | हवा के झोंकों के साथ सूखे खनकते पत्ते टूट कर इधर उधर बिखर रहे थे |
यार शर्मा! इन सूखे बिखरे पत्तों को देख रहे हो इनमे मुझे अपनी तुम्हारी परछाई दिख रही है |
हाँ कमलकांत ! बच्चे बड़े हो गये और हम सूखे पत्तों जैसे| साँसे कब रुक जायें पता नहीं |कभी कभी मेरा पोता बहुत याद आता है |बहुत खेलता था पर…
छोड़ो चलो चलते है ये सूखे पत्ते कभी पुन:शाख पर नहीं लग सकते |पतझाड़ आकर इन्हे गिरा ही देता है |
उदास मन से दोंनो आश्रम के बगीचे मे ही बैठ जाते हैं | दिनकब चढ आता है पता ही नही चलता |
नीम के सूखे पत्तों को इकट्ठा कर दोनों ने उन्हें ढ़ेर में परिवर्तित कर दिया था |तभी आश्रम का चपरासी आकर कहता है शर्मा जी कोई आपसे मिलने आया है |शर्मा जी मुड़ते हुए मुझ से मिलने | अपूर्व मुस्करा रहा था |शर्मा जी चश्मा ठीक करते हैं तभी कमलकांत बोल पड़ते हैं देख शर्मा नींम की शाखों पर पुन: कोपलें उग रही हैं पर कुछ अभी भी पल्लव रहित हैं |
— मंजूषा श्रीवास्तव