बाल कविता

अपने गांव में आते झूले

अपने गांव में आते झूले।
सबके मन को भाते झूले।

भिन्न-भिन्न जातों-पातों में।
प्रभातों एंव रातों में।
लौकिक नगमे गाते झूले।
अपने गांव में आते झूले।

ऊँची नीची ध्वनि भीतर।
तन्मय गुद्गुद्, लगता डर।
शोर शराबा डाले झूले।
अपने गांव में आते झूले।

चलते रहना ही जीवन है।
उन्नति में तब ही जन गण है।
सबको यह समझाते झूले।
अपने गांव में आते झूले।

दूजे को यह सुख देते है।
परन्तु स्वंय दुख लेते हैं।
तन पर सितम उठाते झूले।
अपने गांव में आते झूले।

बच्चे बूढ़े नर एंव नारी।
सब के साथ निभाते यारी।
आचार व्यवहार सिखाते झूले।
अपने गांव में आते झूले।

यह तो सभ्याचार बनाते।
बिछड़ों के हैं यार मिलाते।
क्या मनुहार बताते झूले।
अपने गांव में आते झूले।

प्राचीन समय की बातें है।
इस में आधुनिक यादें हैं।
‘बालम’ प्रीत सिखाते झूले।
अपने गांव में आते झूले।

— बलविन्दर ‘बालम

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409