खुद से मुलाकात
रात किसी ने दरवाजा खटखटाया
कोई अजनबी घर के अन्दर आया
लबों पर कुछ दरख़्वास्त लाया
आंखों में कुछ शिकायत थी
शिकायत कुछ जानी पहचानी थी
मानो अपनी कोई भूली कहानी थी
कुछ कसमें वादे याद दिलाए
जिनको भूले थे वो एहसास याद दिलाए
कुछ अपेक्षा और उपेक्षा गिनवाए
कुछ जीने के बहाने याद दिलाए
अनगिनत ख्वाहिश जो बंद किए थे संदूक में
उस संदूक के चाभी टूढवाए
रंग ब्रश और केनवास से मुलाकात करवाए
धूल खाती उम्मीदो को फिर से जगाए
उस अजनबी को पहचानने की बड़ी कोशिश की !
आवाज़ और सूरत जानी पहचानी लगी
लेकिन पहचान बड़ी पुरानी लगी
कुछ धुंधली कुछ साफ
बातें कुछ अपनी -सी लगी
यह देखकर मैं हुई बड़ी हैरान
जो मुझे नहीं है याद
उसे क्योंकर है इतना याद
क्यों है वो मुझे देख कर हैरान
तभी पुराने अलबम के कुछ पन्ने आए हाथ
रंग उड़े तस्वीरों में अपने अक्श नजर आए
धुंधली यादें हुई साफ
अपनी अजनबी शख्सियत से हो गई पहचान!
— विभा कुमारी “नीरजा”