लघुकथा

दोयम

सत्तू अपने मां की तीसरी सन्तान थी दो भाईयों के बाद उसका जन्म हुआ था। वैसे उसकी किसी को कोई जरूरत नही थी। दो बेटे थे। जो मां पिता के लिए सन्तान भाव को तृप्त कर रहे थे। अब वह तो आ गई थी । बिन मांगे मिली किसी भी चीज की कोई कीमत नहीं होती है। इस लिए मां ने नाम भी सत्तू रख दिया था। अब वह खुद को सत्तू ही समझ रही थी। सत्तू जिसको जब कुछ ना मिले खाया जाता है। जो किसी की भी मनपसंद वस्तु नही होती है। जिसे सबसे आखरी विकल्प के रूप में देखा जाता है। जिसको कभी किसी की पहली पसंद नहीं कहा जा सकता। सत्तू ने अपना बचपन भाइयों के पुराने खिलौने और भाइयों की पुरानी किताबो और कपड़ों में निकाल दिया था।

सत्तू को पुरानी पैंट पहनने को मिली थी। भाई की शर्ट पैंट जूते पहन कर बेचारी को मुहल्ले की लड़कियों के बीच गुड्डे गुड़िया खेलने में कोई स्थान नहीं मिला तो वह लडको के साथ बेट बाल से क्रिकेट खेलने लगी। स्कूल में नाम लिखाया गया और सत्तू पढ़ लिख गई थी। चुकीं गुडिया खेलने की बचाए उसे बैट बॉल मिला था खेलने को। परिणाम स्वरूप वह अनजाने ही बहुत अच्छी क्रिकेटर बन गई थी। उसे स्कूल की गर्ल्स टीम का स्पोर्ट्स कप्तान बना दिया गया था। वह अपनी प्रतिभा के बल पर स्टेट लेवल की खिलाड़ी बन गई थी। किस्मत मेहरबान हुई तो उसका चयन राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के लिए हो गया था। देश की महिला क्रिकेट टीम में चुनाव होने पर घर परिवार का नज़रिया भी कुछ हद तक बदल गया। और प्रदेश स्तर पर खेलने के बाद जब उसका चयन राष्ट्रीय स्तर पर खेलने के लिए हो गया तो सत्तू सोच रही थी की सच में वह कभी किसी भी स्थान पर लोगो की प्रथम पसंद कैसे बन गई है। उसे पहली बार लगा कि वह दोयम नही है। आज विदेश में जीत का परचम लहरा कर जब राष्ट्रीय महिला क्रिकेट टीम स्वेदश पहुंची तो एक स्वागत समारोह में उसे मंच से सत्या कह कर पुकारा गया था। वह सत्या थी। अटल सत्य की भांति जिसका कोई विकल्प नहीं होता। वह सत्या के रूप में अपनी उपस्थिति का अहसास करा रही थी। तालियों की गूज के बीच उसने सत्तू से सत्या का सफर तय कर लिया था।

— प्रज्ञा पांडेय मनु

प्रज्ञा पांडे

वापी़, गुजरात

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