यह भी गायब वह भी गायब
गीत गजल दोहे चौपाई भटक रहे हैं मन मरुस्थल में
किस से पीर बताई जाए यह भी गायब वह भी गायब
मंच स्वार्थ की भेंट चढ़ गया बदल गया साहित्य का मेला
श्रोता पूछ रहे हैं कैसे यह भी गायब वह भी गायब
बड़े गजब के समीकरण हैं राजनीति के ध्रुवीकरण हैं
सच भी नहीं जाए पहचाना यह भी गायब वह भी गायब
हम भी फंसे हुए दलदल में किसको पीर बताई जाए
सुनने वाले सभी नदारद यह भी गायब वह भी गायब
नाच रहे सब ताता थैया रिश्तो की है भूल भुलैया
साथ नहीं कोई विपदा में यह भी गायब वह भी गायब
समय ने खेला खेल पुराना नहीं किसी ने भी पहचाना
नहीं बचा अब कोई बहाना यह भी गायब वह भी गायब
— डॉक्टर इंजीनियर मनोज श्रीवास्तव