कविता

सोचो स्वयं क्या हो

मनुष्य में मनुष्य नहीं दिख पाता
पर तुरंत ही जाति दिख जाती है,
कुछ लोगों को उनके संस्कार
शायद यहीं सिखाती है,
जाति के नाम पर कुछ लोग
बन जाते हैं हिंसक सरफिरे,
स्व उच्चता की कितनों भी दुहाई दे
रहते हैं गिरे के गिरे,
योग्यता को आंकने का पैमाना
लिए रहते हैं कुढ़ता से घिरे,
कोयला ही मान बैठते हैं
जो हर कर्म से रहते हैं हीरे,
हर पदचाप की गूंज लिए
ठोकर पर ठोकर खाये पत्थर को
लगा लेते हैं सर माथे पर,
सबसे प्रिय मित्र लगने लगता है अस्पृश्य
जब उसे लाना पड़ जाये घर,
शायद इसीलिए लोग
बने रह जाते हैं कूपमंडूक,
जो चाहते हैं इंसानियत से फैलते प्रकाश छोड़
अपनी जाति धर्म वाला धूप,
मूर्खों कब समझोगे कि
चंद्रमा,पृथ्वी और सूर्य का कोई
धर्म या जाति नहीं होता,
बहकाकर पेट भरने वालों द्वारा
समानता के सिद्धांत को
दिया जाता रहा है धोखा,
सामने वाले में मनुष्य न दिखे तो
मान लो खुद भी नहीं मानव हो,
खुद की सोच में
बदलाव जब तक नहीं ले आते
तब तक तुम स्वयं पाखंडी दानव हो।

— राजेन्द्र लाहिरी

राजेन्द्र लाहिरी

पामगढ़, जिला जांजगीर चाम्पा, छ. ग.495554

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