विद्यार्थी व अध्यापक के लिए पारस्परिक आवश्यकता व संबन्ध
शिक्षा, शिक्षार्थी व शिक्षक मिलकर शिक्षालय का गठन करते हैं। शिक्षा का महत्व व शिक्षालयों की आवश्यकता प्रत्येक युग में और प्रत्येक समाज में स्वीकार किया गया है। मानव सभ्यता के विकास के क्रम में प्रारंभ से ही सीखने-सिखाने की प्रक्रिया जारी है, भले ही वह किसी भी रूप में रही हो। भारत में गु़रू-शिष्य परंपरा प्राचीनकाल से ही अप्रतिम रही है। गुरु को ईश्वर से भी अधिक महत्व दिया जाता रहा है। निगुर्ण विचारधारा के संतकवि कबीरदास ने तो यहाँ तक कह दिया था-
गुरु गोविन्द दोऊ खड़े, काके लागूँ पायँ।
बलिहारी गुरु आपने गोविन्द दियौ बताय।।
यथार्थ में गुरु के महत्व का आशय शिक्षा के महत्व से ही है। जिसके पास ज्ञान है, वही गुरु बनने का सामथ्र्य रखता है। जो निःस्वार्थ भाव से पात्र व्यक्ति को ज्ञान का दान करने को तत्पर रहता है, वही गुरु का दर्जा पाता रहा है। जो सेवा-भावना के साथ समाज के हित में ज्ञान की याचना के साथ गुरु के पास आता है, वह उनकी स्वीकृति से शिष्य बनकर अभ्यास के द्वारा ज्ञान प्राप्त करता रहा है। यह प्राचीन व्यवस्था रही है। ज्ञान बेचनी की वस्तु नहीं, दान करने की वस्तु रही है। विद्यादान को सर्वोच्च दान माना गया है। महात्मा गांधी ने भी कहा है कि आप यदि किसी व्यक्ति को आधा सेर चावल देते हैं तो वह एक दिन पेट भर पाएगा किन्तु यदि आप उसे चावल उगाने का ज्ञान देते हो तो वह आजीवन पेट भर पाएगा। इसी तर्क के कारण अन्नदान से भी अधिक महत्व विद्यादान को दिया जाता रहा है।
समय चक्र परिवर्तनशील है। समय के साथ सब कुछ बदलता है। ज्ञान का स्वरूप और प्राप्त करने की प्रक्रिया भी बदलती है। स्वामी विवेकानन्द शिक्षा का अर्थ ही ‘गुरुगृह-वास’ मानते थे। उनके अनुसार गुरु के व्यक्तिगत जीवन के बिना कोई शिक्षा नहीं हो सकती। हमारे देश में ज्ञान का दान सदैव त्यागी पुरुषों के द्वारा होता रहा है। भारतवर्ष की पुरानी गुरुकुल प्रथा के अनुसार ज्ञान इतना पवित्र माना जाता था कि उसे बेचा नहीं जा सकता था। वर्तमान में आधारभूत परिवर्तन आया है। वर्तमान में शिक्षा को निःशुल्क प्राप्त करना संभव नहीं हैं। वर्तमान में गुरु-शिष्य परंपरा तो समाप्त प्राय है। केवल आध्यात्मिक क्षेत्र को छोड़कर और कहीं भी गुरु-शिष्य परंपरा का अस्तित्व देखना मुश्किल ही है। वास्तव में शिक्षा के क्षेत्र में न तो अब गुरु हैं और न ही शिष्य। शिक्षक और शिक्षार्थी का संबन्ध गुरु और शिष्य संबन्धों से पूर्णतः भिन्न है। वर्तमान समय में सेवा प्रदाता और सेवा प्राप्त करने वाले संबन्ध ही दिखाई देते हैं। शिक्षक का स्वयं ही ज्ञान और शोध के प्रति समर्पण का भाव नहीं रह गया है। वह केवल नौकरी करना चाहता है और अधिकतम वेतन व सुविधाओं की आकांक्षा रखता है, ऐसी स्थिति में शिक्षार्थी भी उपभोक्ता मात्र रह गया है। वह कीमत चुकाकर कुछ सूचनाएँ ग्रहण करता है और परीक्षा देकर प्रमाणपत्र हासिल कर लेता है। शिक्षक और शिक्षार्थी के संबन्ध में आधारभूत परिवर्तन हुआ है। अब शिक्षक और शिक्षार्थी की पारस्परिक आवश्यकता अवश्य है किन्तु उनमें विश्वास का संबन्ध नहीं रह गया है। अब न तो शिक्षक शिष्य को पुत्रवत स्नेह करता है और न ही शिष्य गुरु को ईश्वर के समान मानकर श्रद्धा और भक्ति रखता है। वास्तव में वे गुरु और शिष्य हैं ही नहीं, शिक्षक और शिक्षार्थी आपूर्तिकर्ता और उपभोक्त बन चुके हैं।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार शिष्य के लिए आवश्यकता है शुद्धता, ज्ञान की सच्ची पिपासा और लगन के साथ परिश्रम की। ज्ञान, वाणी और कर्म की पवित्रता नितान्त आवश्यक है। कर्ण और परशुराम का उदाहरण सामने हैं। कर्ण के द्वारा अपनी जाति छिपाई, इसी कारण उन्हें गुरु द्वारा प्रदत्त विद्या को भूलना पड़ा। ज्ञान-पिपास के संबन्ध में पुराना नियम यह है कि हम जो कुछ चाहते हैं, वही पाते हैं। जिस वस्तु की हम शुद्ध अन्तःकरण से चाह नहीं करते, वह हमें प्राप्त नहीं होती। कर्ण के अन्दर ज्ञान-पिपासा भी थी और कर्ण परिश्रमी भी था किन्तु शुद्धता की कमी के कारण वे यथेष्ट ज्ञान प्राप्त न कर सका। हमें अपनी पाशविक प्रकृति के साथ निरन्तर जूझे रहना होगा, सतत यु़द्ध करना होगा, अविराम प्रयत्न करना होगा। वर्तमान समय में शुद्ध अन्तःकरण की पवित्रता पर इतना जोर नहीं दिया जाता। अध्यापक भी अपने ज्ञान का विक्रय करते हैं और विद्यार्थी उसे धन चुकाकर खरीदते हैं। हाँ! ज्ञान-पिपासा का स्थान तात्कालिक श्रम और लगन ने ले लिया है।
गुरु का स्थान इतना महत्वपूर्ण रहा है। यह अत्यन्त महत्वपूर्ण कार्य है। हर कोई गुरु नहीं बन सकता। गुरु तो क्या? हर कोई शिक्षक भी नहीं बन सकता। शिक्षक बनने के लिए भी स्वामी विवेकानन्द के विचार में तीन विशिष्ट गुण होने चाहिए। वह हैं- शास्त्रों का मर्मज्ञ, निष्पापता व मानवता के लिए ज्ञान का प्रसार करने का उद्देश्य। किसी विषय की सतही व शाब्दिक जानकारी किसी व्यक्ति को उस विषय का शिक्षक नहीं बना देती। शिक्षक को अपने विषय का मर्मज्ञ और कर्मज्ञ होना चाहिए। विषय का मर्म जानने वाला और उस पर कर्म करने वाला शिक्षक होने पर ही विद्यार्थियों का विश्वास और सम्मान मिल सकता है। विश्वास के बिना कैसा शिक्षक? वास्तविकता यही है कि विश्वास ही संबन्धों का सृजन करता है। विश्वास के बिना किसी भी प्रकार का संबन्ध संभव ही नहीं है। विश्वास ही संबन्धों का मूल है। यही नहीं किसी भी प्रकार के संबन्ध के लिए दो इकाइयाँ होना आवश्यक है। इस परिप्रेक्ष्य में किसी विद्यार्थी का अस्तित्व तभी संभव है कि ज्ञान और ज्ञान प्रदान करने वाली इकाई उपलब्ध हो। जो ज्ञान प्राप्त करना चाहता है, वह विद्यार्थी और जो ज्ञान प्रदान करने के लिए तैयार है, वह शिक्षक। अन्य सभी सहायक उपकरण कम हों या अधिक, उनसे फर्क तो पड़ता है किन्तु गुरु के बिना शिष्य का और शिष्य के बिना गुरु का अस्तित्व संभव नहीं है। शिक्षक और शिक्षार्थी ही आपस में एक-दूसरे के अस्तित्व के सर्जक हैं।
प्राचीन काल से ही तथाकथित गुरुओं ने अपनी कमियों और दोषों को छिपाने के लिए एक कहावत चला दी कि गुरु के दोषों को नहीं देखना चाहिए। यह केवल अपनी गलतियों पर पर्दा डालने के लिए चलाया गया, जबकि कहावत तो यह भी है कि ‘पानी पीेओ छान के, गुरु बनाओ जानके’ जिसका अर्थ है अपने गुरु का चयन पूरी जाँच-पड़ताल करके विवेक पूर्वक करना चाहिए। स्वामी विवेकानन्द जी कहते थे कि किसी के प्रति अन्धी भक्ति से मनुष्य की प्रवृत्ति दुर्बलता और व्यक्तित्व की उपासना के लिए झुकने लगती है। अपने गुरु की पूजा भले ही ईश्वर दृष्टि से करो, पर उनकी आज्ञा का पालन आँखें मूँदकर न करो। प्रेम तो उन पर पूर्ण रूप से करो किन्तु स्वयं भी स्वतंत्र रूप से विचार करो। स्वामी जी के विचार में किसी भी व्यक्ति के प्रति अंध श्रद्धा उचित नहीं है, भले ही वह गुरु के पद पर विराजमान क्यों न हो? गुरु भी मानव है और मानवीय दुर्बलताएँ, उसमें भी होंगी ही। शिष्य को गुरु से ज्ञान प्राप्त करना है, योग्यता प्राप्त कर अपनी क्षमताओं को बढ़ाना है किन्तु गुरु की दुर्बलताओं और दोषों से बचना है।
गुरु और शिष्य के नाम ही नहीं बदले हैं, संबन्ध भी बदल गए हैं। वर्तमान समय में शिक्षक और शिक्षार्थी के संबन्ध श्रद्धा, सम्मान और विश्वास जैसे भावों से नहीं, वरन लाभ-हानि का विचार करने वाली बुद्धि से परिचालित होते हैं। जब भावों का स्थान बुद्धि द्वारा ले लिया जाता है, तब मानव मानव नहीं रह जाता। वह मशीन बन जाता है। वर्तमान समय में हम मशीन ही बन रहे हैं। इससे भी आगे बढ़कर आधुनिक तकनीक के युग में मानव का स्थान मशीन ही लेती जा रही है। अध्यापक का स्थान रोबोट के द्वारा लिया जा रहा है। निःसन्देह शिक्षा और शिक्षक की आवश्यकता तो अभी भी बनी हुई है और शायद प्रत्येक युग में रहेगी किन्तु संबन्ध बदल गए हैं। सबन्धों में परिवर्तन के कारण ही नैतिकता और सदाचार के स्तर में भी परिवर्तन आ रहा है। जब मानव पर मशीन हावी हो जाती है और मानव मशीन के कलपुर्जे की तरह काम करने लगता है, तब उस युग को कलयुग कहा जाने लगता है। आज हम कलयुग में जी रहे हैं।
कोरोना काल में शिक्षा के क्षेत्र में मशीनों व तकनीक का प्रयोग द्रुत गति से बढ़ा है। ऐसा लगने लगा है कि भविष्य में रोबोट अध्यापक का स्थान ले लेंगे। ऐसी कल्पना ही भयानक प्रतीत होती है। हमें प्रयास यह करना है कि हम मशीन के प्रभाव से अपने को बचाते हुए अपने आपको मानव बनाए रखने का प्रयत्न करें। मशीनों के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता किंतु मशीन मानव का प्रयोग न करें, मानव मशीनों का प्रयोग करे। मशीन संबन्धों पर हावी न हों। मशीनों का प्रयोग करें किन्तु मशीनों से संबन्ध स्थापित न करें। मशीनों का उपयोग करें किन्तु स्वयं मशीन न बन जाएँ। तभी अध्यापक की आवश्यकता बनी रह सकती है। संबन्धों में परिवर्तन अवश्य आया है किंतु विद्यार्थी के लिए शिक्षक का अस्तित्व भी आवश्यक है।