धर्म, कर्म और शिक्षा- विवेकानन्द के सन्दर्भ में
शिक्षा मानव विकास के लिए आधारभूत आवश्यकता है। इस तथ्य पर सार्वकालिक सर्वसहमति रही है। शिक्षा के आधारभूत सिद्धांतों को लेकर विभिन्न समाजों में मतान्तर रहा है, अब भी है और शायद सदैव रहेगा। मानव विकास के मूलाधार जिज्ञासा, इच्छाशक्ति और कर्म रहे हैं। सुसंस्कृत मानव के लिए कर्म ही धर्म बन जाता है। इस संबन्ध में सर्वसहमति नहीं रही है। शिक्षा धर्म पर आधारित होनी चाहिए या धर्म-निरपेक्ष होनी चाहिए? इस विषय पर विचार विभिन्नता रही है। धार्मिक शिक्षा देनी चाहिए या नहीं? यह प्रश्न सदैव ही मानव के सामने रहा है किंतु इस प्रश्न की तीव्रता और तीक्ष्णता धर्म-निरपेक्षता के आधुनिक प्रसार के साथ ही बढ़ती रही है। धार्मिक शिक्षा दी जानी चाहिए या नहीं? धर्म का मूल आधार शिक्षा है या धर्म-निरपेक्षता? ये प्रश्न वर्तमान में मतांतर से विवाद में परिवर्तित हो गए हैं। ये प्रश्न अपने आपमें निरपेक्ष नहीं हैं। इन प्रश्नों का उत्तर खोजने का चिंतन स्वयं में इस बात पर निर्भर है कि हम धर्म का क्या अर्थ लगाते हैं? धर्म से हमारा आशय क्या है?
धर्म, कर्म और शिक्षा के संबन्ध को स्पष्ट करना, बढ़ा ही जटिल कार्य है। शिक्षा ही हमें हमारे कर्तव्यों के बारे में बताती है। शिक्षा होती ही इसलिए है कि वह हमें सक्षम बना सके। हम समझ सकें कि वास्तव में हमें क्या करना चाहिए? और क्यों? शिक्षा हमारे कर्मो को आधार प्रदान करती है। दूसरी ओर हमें हमारे धर्म से परिचित कराने और आत्मसात कराने का कार्य भी शिक्षा के द्वारा ही संभव होता है। वह शिक्षा ही क्या? जो हमें हमारे धर्म के बारे में न बताए। संसार में दो प्रकार की विचारधाराएं रही हैं, एक तो वे जो मानव ही नहीं, संपूर्ण प्राणियों के विकास को महत्व देते हुए; जीओ और जीने दो के सिद्धांत पर चलते हुए सभी प्राणियों के उन्नयन के लिए कर्मरत रहने को धर्म मानती रही हैं। विभिन्न प्रक्रियाओं का विकास करती रही हैं। दूसरी विचारधारा ने धर्म के मूल या सार को छोड़कर केवल किसी प्रक्रिया को पकड़ा और वे केवल एक किसी प्रक्रिया या विधि को ही धर्म मानकर बैठ गए। उससे इतर किसी भी प्रकार से विचार करने या विचार को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हुए। इस प्रकार की प्रक्रिया या विधि को कर्मकाण्ड नाम दिया गया।
जिन व्यक्तियों ने सभी प्राणियों को मूल में रखा, उनके विचार को लेकर चलने पर शिक्षा का मूलाधार धर्म है; इसमें किसी भी प्रकार का विवाद या संदेह नहीं हो सकता। दूसरी ओर किसी विशेष कर्म-काण्ड को धर्म मानने वाले व्यक्तियों की धर्म की परिभाषा को मान लें तो शिक्षा को धर्म से दूर रखना ही श्रेयस्कर है। इस प्रकार के कूप-मण्डूक धर्म से शिक्षा को बचाए रखने की आवश्यकता है। इस प्रकार शिक्षा धार्मिक होनी चाहिए या नहीं? इस प्रश्न का उत्तर इस बात पर निर्भर है कि हम धर्म का आशय कर्म से लेते हैं या कर्म-काण्ड से। जब हम सभी के हित के लिए कर्म करने की बात स्वीकार करते हैं तो कर्म और धर्म में एकता स्थापित हो जाती है। कर्म और धर्म में कोई भेद नहीं रहता। ऐसी स्थिति में शिक्षा धर्म से अलग हो ही नहीं सकती। सभी धर्मो व संप्रदायों के विचारकों ने शिक्षा के लिए धर्म को ही आधार माना है। शिक्षा की आवश्यकता ही व्यक्ति को उसका धर्म सिखाने के लिए पड़ती है। इस प्रकार धार्मिक शिक्षा या अधार्मिक शिक्षा जैसे शब्दों का ही कोई मतलब नहीं रह जाता; धर्म ही शिक्षा देता है। धर्म और शिक्षा एकाकार हो जाते हैं। धर्म-निरपेक्षता वास्तव में समाज-निरपेक्षता ही नहीं व्यक्ति-निरपेक्षता बन जाती है। धर्म के बिना मानव का अस्तित्व ही नहीं रहता। अतः शिक्षा का मूलाधार ही धर्म होता है।
यह स्वीकार कर लेने के पश्चात कि शिक्षा का मूलाधार धर्म है। प्रश्न यह उठता है कि धर्म का मूलाधार या आदर्श क्या है? स्वामी विवेकानन्द इस प्रश्न का सर्वाधिक स्वीकार योग्य उत्तर देते हैं। स्वामी जी स्पष्ट रूप से घोषित करते हैं कि मानवता की सेवा ही धर्म का आदर्श है। धर्म निष्क्रिय नहीं है कि समाज से भाग कर किसी गुफा या कन्दरा में बैठ जाओ। स्वामी जी के विचार में मानवता के हित में, सभी प्राणियों के हित में, व्यष्टि और समष्टि दोनों के ही हित में दोनों की सेवा में सदैव सक्रिय रहना ही जीवन की उपयोगिता है और यह किसी स्वार्थ के लिए नहीं, सेवा के लिए किए जाने वाला कर्म ही धर्म है। स्वामी विवेकानन्द ने यद्यपि किसी भी विचार का विरोध नहीं किया है, तथापि वे वेदांती माने जाते हैं। सामान्य वेदांती की तरह वे किसी एक ही विचार के पोषक नहीं हैं। वह सभी विचारों को स्वीकार करते हैं। सभी प्राणियों में ईश्वर रूप को देखते हैं। उन्होंने अपने सेवा के कार्यो के द्वारा नर सेवा-नारायण सेवा के भाव को सिद्ध किया है। उन्होंने अपनी मुक्ति की साधना के लिए साधना नहीं की, वे आजीवन भारत के विकास व उत्थान के लिए प्रयत्न शील रहे। उनके धर्म का मूल भाव सेवा है। सेवा के द्वारा देश के सभी प्राणियों का उत्थान करना ही उनके जीवन का उद्देश्य रहा। सेवा के क्षेत्र में उन्होंने हनुमान को एक आदर्श के रूप में स्वीकार किया है। सेवा का आदर्श कुछ प्राप्त करने की अपेक्षा नहीं करता, सेवा स्वयं में संतुष्टि देती है। सेवा स्वयं में ही प्राप्य है। सेवा में जो आनन्द की अनुभूति कर सकता है, वह ही सच्चा सेवक है। यहाँ यह स्पष्ट रूप से समझने की आवश्यकता है कि नौकरी सेवा नहीं है।
स्वामी विवेकानन्द तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखकर उपासना पर अपने विचार व्यक्त करते हैं कि वर्तमान समय में गोपियों के साथ कृष्ण लीला की उपासना उपयोगी नहीं है। वास्तव में श्री कृष्ण के जीवन को देखते हैं तो उनका महत्व गोपियों के साथ खेल में नहीं है। उनको हम तत्कालीन परिरिस्थतयों में दुष्ट दलन के कारण जानते हैं। महाभारत के कारण जानते हैं। गीता के ज्ञान के कारण जानते हैं। बिना राजा बने राज्यों के नियंता के कारण जानते हैं। इन्हीं गुणों को सीखने की आवश्यकता है किंतु हम करते क्या हैं? हम उनके बचपन की लीलाओं का नाटक करने लग जाते हैं। बचपन के खेलों को लेकर हमने न जाने क्या-क्या? कल्पनाएँ कर ली हैं और उन्हीं में समय बर्बाद करके अपने आपको भक्त होने का दंभ पालने लगते हैं। उनके इस कथन को भूल जाते हैं, ‘यदा-यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्।। अर्थात हे भारत! जब-जब धर्म को ग्लानि यानि उसका लोप और अधर्म में वृद्धि होने लगती है, तब-तब मैं धर्म के उत्थान के लिए स्वयं की रचना करता हूँ अर्थात् मैं अवतार लेता हूँ।’ इस प्रकार ईश्वर की उपासना का सर्वश्रेष्ठ प्रकार भी उनके कार्यो को करना ही हो सकता है। सभी प्राणियों के हित में कार्य करना ही धर्म की स्थापना है। कर्म में आनन्द की अनुभूति करते हुए, हम कर्म को पूजा में परिवर्तित कर सकते हैं। काण्ट इसी को कर्तव्य के लिए कर्तव्य (Duty for duty’s sake) कहते हैं। गीता में इसी को निष्काम कर्मयोग कहा गया है। जब हम निष्काम भाव से केवल कर्म के लिए ही कर्म करते हैं, तब वह कर्म ही धर्म बन जाता है। शिक्षा का उद्देश्य उसी कर्म और उसी धर्म के लिए मानव को तैयार करना है। इस प्रकार स्पष्ट है कि कर्म को धर्म से और धर्म को शिक्षा से अलग नहीं किया जा सकता।
स्वामी विवेकानन्द देशभक्त संन्यासी थे। उन्होंने अपने आपको देश के लिए समर्पित कर दिया था। उन्हें चारों पुरुषार्थो में से किसी का भी मोह नहीं है। वे धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष से भी मुक्त हैं। वे किसी भी बंधन में नहीं हैं। वे किसी भी बंधन से मुक्त है। वे स्वयं ही मुक्त पुरूष हैं, फिर उन्हें मुक्ति के लिए साधना करने की आवश्यकता कहाँ रह जाती है? वे तो भारत के प्रत्येक नागरिक को शुद्ध, बुद्ध और मुक्त करने के लिए काम करते हैं। धर्म की परिभाषा भी उनके लिए विलक्षण ही है। स्वामी जी ने स्पष्ट रूप से संदेश दिया कि प्राचीन धर्मो ने कहा, ‘‘वह नास्तिक है, जो ईश्वर में विश्वास नहीं करता।’’ नया धर्म कहता है, ‘‘नास्तिक वह है, जो स्वयं में विश्वास नहीं करता है।’’ स्वामी जी स्वाभिमान और आत्मविश्वास को जगाकर भारतीय नागरिकों व भारत को सशक्त करना चाहते थे। उनके अनुसार अनन्त शक्ति ही धर्म है। बल पुण्य है और दुर्बलता पाप। दुर्बलता ही सारे दुष्कर्मो की प्रेरक शक्ति है।
स्वामी विवेकानन्द सत्य को भी शक्ति से जोड़ते हुए परिभाषित करते हैं। वे कहते हैं, जो सत्य हो उसकी साहस के साथ घोषणा करो। सभी सत्य सनातन हैं। सत्य ही आत्मा का स्वभाव है। सत्य की एकमात्र कसौटी यह है- जो कुछ तुम्हें शरीर से, बुद्धि से या आत्मा से कमजोर बनाए, उसे विष की भांति त्याग दीजिए; उसमें जीवन शक्ति नहीं है; वह कभी सत्य नहीं हो सकता। सत्य तो बलप्रद है; पवित्रतास्वरूप है, ज्ञानस्वरूप है। सत्य तो वह है, जो शक्ति दे, जो हृदय के अंधकार को दूर कर दे, जो हृदय में स्फूर्ति भर दे। इस प्रकार स्वामी जी मन,वचन और कर्म की एकरूपता की बात करके सत्य को परिभाषित नहीं करते; वे सत्य की विशेषताओं, गुणों और लक्षणों को प्रभावशाली तरीके से रेखांकित करते हैं। वे सत्य की शक्ति को हमारे सामने रखकर सत्य को जीने के लिए प्रेरित करते हैं।
सत्य जितना महान होता है, उतना ही सहज बोधगम्य होता है-स्वयं अपने अस्तित्व के समान सहज। जो है, वह है; जो नहीं है, वह नहीं है। यह सरल है। जो नहीं है, उसको कहना और सिद्ध करना कठिन है। इसी प्रकार सत्य सरल व बोधगम्य है, असत्य जटिल और असंभव है। केवल मुख से कह देना और आचरण में न लाना-यह हमारा स्वभाव बन गया है। असत्य का स्वभाव में आना, व्यष्टि और समष्टि दोनों के लिए ही खतरनाक है। असत्य व्यवहार का कारण क्या है? दुर्बलता। दुर्बल व्यक्ति अपने मन-वचन और कर्म में एकरूपता बनाए रखने में सक्षम नहीं होता। इस प्रकार के दुर्बल मस्तिष्क से कोई काम नहीं हो सकता। हमें उसे सबल बनाना होगा। सर्वप्रथम हमारे नवयुवकों को बलवान बनना चाहिए। बलवान ही सत्य पर चल सकता है। बलवान ही सत्य को जी सकता है। सत्य के मार्ग पर चलने वाले व्यक्ति का कर्म ही धर्म होता है। इसी कारण स्वामी जी ने कहा है कि बलवान बनो! धर्म स्वतः पीछे आ जाएगा।
हमें दुर्बल करने के लिए हजारों विषय हैं। कमियाँ, बुराइयाँ और कमजोरियों को बताने वाले किस्से कहानियाँ भी बहुत हैं। स्वामी जी स्पष्ट घोषणा करते हैं, हमको शक्ति केवल शक्ति चाहिए। उपनिषद शक्ति की विशाल खान हैं। उनमें ऐसी प्रचुर शक्ति विद्यमान है कि वे समस्त संसार को तेजस्वी कर सकते हैं। वे तो समस्त जातियों को, सभी मतों को, भिन्न-भिन्न संप्रदाय के दुर्बल, दुखी और पददलित लोगों को उच्च स्वर में पुकार कर स्वयं अपने पैरों पर खड़ें होने और मुक्त हो जाने के लिए कहते हैं। मुक्ति अथवा स्वाधीनता-दैहिक स्वाधीनता, मानसिक स्वाधीनता, आध्यात्मिक स्वाधीनता-यही उपनिषदों का मूलमंत्र है। स्वाधीनता के बिना शक्ति नहीं है और शक्ति के बिना स्वाधीनता की कल्पना नहीं की जा सकती। अतः स्वाधीन शक्तिशाली बनो यही जीवन का धर्म है।
स्वामी विवेकानन्द का स्पष्ट मत है, ‘शास्त्रों के द्वारा हम धार्मिक नहीं बन सकते। हम भले ही संसार की सारी पुस्तकें पढ़ डालें, पर हो सकता है कि हम धर्म या ईश्वर का एक अक्षर भी न समझें। हम भले ही जीवनभर तर्कविचार करते रहें, पर स्वयं प्रत्यक्ष अनुभव किए बिना हम सत्य का कण मात्र भी न समझेंगे।……… सिद्धांतों, मतवादों और बौद्धिक विवादों में धर्म नहीं रखा है।’ वास्तविक धर्म जानने या विद्वता में नहीं है। धर्म तो कर्म में है। धर्म तो व्यवहार में है। जो व्यक्ति विचार को कर्म में नहीं ला सकता। वह व्यक्ति असत्य व्यवहार कर रहा है। जिस विचार का व्यवहार संभव न हो, वह विचार ही असत्य है। तभी तो स्वामी जी कहते हैं, ‘सर्वोच्च बौद्धिक शिक्षा प्राप्त किए हुए लोगों में कई अधार्मिक पुरूष हुए हैं। पाश्चात्य सभ्यता की बुराइयों में से यह भी एक है कि वहाँ हृदय की परवाह न करते हुए केवल बौद्धिक शिक्षा दी जाती है। ऐसी शिक्षा मनुष्य को दस गुना अधिक स्वार्थी बना देती है। जब हृदय और मस्तिष्क का द्वंद्व उपस्थित हो, तब हमें हृदय का ही अनुसरण करना चाहिए।’ यथार्थ में हृदय और मस्तिष्क में द्वंद्व की उपस्थिति होनी ही नहीं चाहिए। हृदय और मस्तिष्क की भिन्नता ही असत्य है। दोनों में एकरुपता ही हमें धर्म के उच्चतम शिखर तक ले जा सकती है।
धर्म हमें मार्ग दिखाता है। धर्म हमें जागरूक बनाता है। धर्म हमें विचार और कर्म की स्वाधीनता देता है। जहाँ स्वतंत्र चिंतन नहीं, वहाँ धर्म भी नहीं, कर्मकाण्ड हो सकता है। स्वामी विवेकानन्द ने धर्मान्धता को एक रोग कहा है। धर्म विचार करने के मार्ग को बाधित नहीं करता। धर्म जिज्ञासा, इच्छाशक्ति और कर्म के मार्ग में खड़ा नहीं होता। धर्म व्यक्ति को बिना समझे, आँख बंद करके कुछ भी करने को बाध्य नहीं करता। धर्म तो ज्योति पुंज ज्ञान को व्यवहार में उतारने का नाम है। धर्म व्यक्ति को अंधा नहीं बनाता। धर्म किसी का तिरस्कार और बहिष्कार नहीं, धर्म तो सर्वस्वीकार है।
मानव-जाति को जिस तीव्रतम प्रेम का अनुभव हुआ है, वह धर्म से ही प्राप्त हुआ है। धार्मिक क्षेत्र के व्यक्तियों से ही संसार के अत्यन्त उदार शान्ति-सन्देश प्राप्त हुए हैं। दूसरी ओर संसार में घोरतम निंदा-वाक्य भी धर्म में आस्था रखने वालों द्वारा ही कहे गये हैं। यही नहीं सर्वाधिक रक्तपात भी धर्म के नाम पर ही हुए हैं। मानव मन की एक प्रकार की बीमारी है, जिसे धर्मान्धता कहते हैं। धर्मांधता ने व्यक्ति, परिवार व समाज को हानि ही पहुँचाई है। धर्मांधता कभी भी विकास के मार्ग को प्रशस्त नहीं कर सकती। धर्मांधता अधर्म फैलाती है। इससे प्रेरित कर्म पुण्य नहीं पाप होने की संभावना ही पैदा करते हैं।
स्वामी विवेकानन्द के अनुसार सभी धर्मों और संप्रदायों में समन्वय की आवश्यकता है। सभी धर्मों का मूल एक ही है। आवश्यकता ऐसे व्यक्तित्व की है, जो भारत ही नहीं भारतेतर देशों के सारे विरोधी मत-मतान्तरों में समन्वय स्थापित कर दे और इस प्रकार एक अद्भूत समन्वय के द्वारा सार्वभौम धर्म का आविष्कार करे।………मैंने अपने गुरुदेव से इस अद्भुत सत्य को सीखा कि संसार के भिन्न-भिन्न धर्म एक-दूसरे के असंगत या विरोधी नहीं है। वे एक ही सनातन धर्म के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इस प्रकार गुरुदेव श्री रामकृष्ण वास्तव में सभी धर्मों के समन्वायाचार्य थे।
सामान्यतः समाज में सभी धमों के प्रति सहिष्णुता रखने की बात की जाती है। सर्वधर्म समभाव की बात की जाती है। स्वामी विवेकानन्द ने अपने गुरू से सहिष्णुता से भी आगे का पाठ पढ़ा। उनके अनुसार धर्म का मूल सहिष्णुता नहीं, स्वीकृति है। स्वामी विवेकानन्द के मतानुसार धर्म का मूल सहिष्णुता में नहीं, स्वीकार में है।…………………अतीत में जो कुछ भी हुआ है, वह सब हम ग्रहण करेंगे; वर्तमान ज्ञान-ज्योति का उपभोग करेंगे; और भविष्य में आने वाली बातों को ग्रहण करने के लिए अपने हृदय के सारे दरवाजों को खुला रखेंगे। अतीत के ऋषियों को प्रणाम, वर्तमान के महापुरुषों को प्रणाम और जो-जो भविष्य में आएंगे, उन सबको प्रणाम!