शिक्षा, संस्कृति, संस्कार व संस्कृत विकास के आधार
विकास सर्वाधिक प्रचलित शब्दों में से एक है। हर व्यक्ति विकास की बात करता है। हर परिवार अपना विकास चाहता है। हर समाज में विकास पर चर्चा की जाती है। व्यक्ति, परिवार व समाज सभी विकास के आकांक्षी होते हैं। प्रत्येक देश के लिए विकास योजनाएँ बनाई जाती हैं। हाँ, यह अलग बात है कि सभी की विकास आकांक्षाएँ, विकास के लक्ष्य व विकास योजनाओं की अवधारणाएँ भिन्न-भिन्न होती है। लौकिक व अलौकिक दुनिया की बात करते समय भी विकास की बात होती है। आध्यात्मिक व भौतिक दोनों ही स्तर पर विकास की आवश्यकता स्वीकार करते हुए व प्रयास किए जाते हैं। व्यष्टि और समष्टि दोनों ही स्तरों पर विकास प्रक्रिया चलती रहती है। जिस प्रकार परिवर्तन एक अटल नियम है, उसी प्रकार उन्नति व अवनति भी नियमित रूप से होती रहती हैं। परिवर्तन को उन्नति की ओर दिशा देनी है या उसे अवनति की ओर जाने देना है। यह व्यक्ति और समूह के प्रयासों पर निर्भर करता है। उन्नति के लिए निरंतर प्रयास करते हुए कर्मरत रहना आवश्यक होता है। निष्क्रिय या अनियोजित प्रयोसों के द्वारा तो परिवर्तन प्रक्रिया अवनति की ओर ही ले जाती है। अतः हमें शिक्षा, संस्कृति, संस्कार के द्वारा सक्षम होकर केवल भौतिक ही नहीं सवर्तोमुखी उन्नति के लिए कर्मरत रहने की आवश्यकता सदैव बनी रहती है।
किसी भी व्यक्ति के विकास के लिए जिज्ञासा, योजना, कर्म और समीक्षा आवश्यक प्रक्रिया हैं। इस सबके योग्य और सक्षम बनाने के लिए व्यक्ति को उचित शिक्षा और प्रशिक्षण की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षा एक बहुआयामी प्रक्रिया है। शिक्षा केवल विद्यालयी औपचारिक शिक्षा तक सीमित नहीं है वरन शिक्षा अनुभवों की प्रक्रिया है, जो आजीवन चलती रहती है। शिक्षा जन्म के साथ ही प्रारंभ हो जाती है। इससे भी अधिक भारतीय आध्यात्मिक व्यवस्था के अन्तर्गत तो यह मान्यता है कि शिक्षा जन्म से पूर्व ही प्रारंभ हो जाती है। इसी संदर्भ में अभिमन्यु की कथा सुनाई जाती है कि उसने चक्रव्यूह में प्रवेश करने की कला अपने पिता से गर्भ में ही सीख ली थी। यही कारण है कि गर्भाधान के साथ ही माता से सुसंस्कृत, सदाचारी व शालीन जीवनचर्या अपनाने की अपेक्षा की जाती है। भारतीय संस्कृति गर्भाधान को भी संस्कार के रूप में देखती है।
मनुष्य जीवन का आधार कर्म हैं। कर्म ही मनुष्य को प्राणी से मानवता के गौरव की ओर ले जाते हैं। विचार कर्म के पूर्वज हैं। विचार ही कर्म को जन्म देते हैं। विचारों को शिक्षा की आवश्यकता पड़ती है। शिक्षा के लिए माध्यम की आवश्यकता पड़ती है। अनुभव विचार और चिंतन की प्रक्रिया से गुजरकर ही शिक्षा के रूप में विकसित होता है। विचार के लिए भी किसी माध्यम की अनिवार्यता है। यह माध्यम भाषा होती है। अतः शिक्षा के लिए भाषा की आवश्यकता होती है। भारतीय संदर्भ में बात करें तो प्राचीन भारतीय वाड़्मय संस्कृत में मिलता है। भारतीय परिवेश में ज्ञान के लिए इसी कारण संस्कृत को महत्वपूर्ण माना गया है। संस्कृत शास्त्रीय भाषा है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान संस्कृत में होने के कारण ही भारत में संस्कृत को विकास का आधार माना गया है। जो स्थान पाश्चात्य जगत में अंग्रेजी का है, वही स्थान भारत में संस्कृत का रहा है।
संस्कृति का शब्दार्थ- उत्तम या सुधरी हुई स्थिति से लिया जाता है। संस्कृति शब्द का संधि विच्छेद ‘सम् और कृति’ होता है। सम् का अर्थ अच्छी तरह और कृति का अर्थ किया गया कार्य होता है। इस प्रकार सृस्कृति का मतलब किसी समुदाय के लोगों के विश्वास, मूल्य, परंपरा और विचार होते हैं। यह सोचने, विचारने और काम करने के तरीके में दिखाई देती है। संस्कृति मानसिक क्षेत्र की प्रगति को दिखाती है, जिसके पहलू मूल्य और विश्वास, भाषा, प्रतीक, मानदण्ड और रीतिरिवाज होते हैं। संस्कृति किसी समाज के उन समस्त संस्कारों का बोध होता है जिनके सहारे वह अपने आदर्शों, जीवन मूल्यों और मानदंडों का निर्धारण करता है। जैसा कि शब्दार्थ से ही स्पष्ट है कि सुधरी हुई स्थिति, संस्कृति स्थिर नहीं होती; यह सदैव सुधार की प्रक्रिया का स्वागत करती है। हाँ, संस्कृति में परिवर्तन दीर्घकालीन होते हैं। संस्कृति शिक्षा का आधार होती है। संस्कृति ही अपने नागरिकों को संस्कारित करती है। नागरिकों को निरंतर संस्कारित करते रहने की प्रक्रिया से ही संस्कृति एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थानान्तरित होती है। संस्कारित करना शिक्षा के माध्यम से ही होता है। शिक्षा और संस्कृति को अलग करना संभव नहीं है।
भारतीय संदर्भ में बात करें तो भारतीय संस्कृति के मूल तत्वों को जानने के लिए संस्कृत भाषा और संस्कृत के साहित्य को जानना आवश्यक है। वास्तविकता यह है कि संस्कृति जानने की वस्तु नहीं है। यह जीवन शैली है। संस्कृति जीवन शक्ति है। संस्कृति को जीना होता है। संस्कृति व्यक्ति को संस्कारित करती है। संस्कारित करना ही शिक्षा का मूल कार्य है। केवल जानना शिक्षा नहीं है। जीवन को सुधारना शिक्षा है और सुधरी हुई स्थिति ही संस्कृति है। सुधरी हुई स्थिति को विकसित अवस्था भी कहा जा सकता है। सुधार या उन्नति की प्रक्रिया को ही विकास प्रक्रिया कहा जाता है। सुधरी हुई स्थिति को ही विकास की अवस्था कहा जाता है।
विकास और संस्कृति दोनों ही सुधरी हुई स्थितियाँ हैं। मानसिक सुधार संस्कृति है और भौतिक सुधार विकास की अवस्था है। संस्कृति मानसिक स्तर पर समुदाय का सामूहिक विकास प्रतिबिंबित करती है। मानव द्वारा समाज के एक सदस्य के रूप में अर्जित ज्ञान, विश्वास, आस्था, रीति-रिवाज, जीवन-मूल्य, मानदण्ड, जीवन-शैली, परंपरा, कानून आदि का समग्र जटिल स्वरूप संस्कार हैं। सामुदायिक स्तर पर संस्कारों की प्रक्रिया व संस्कारों का पुंज संस्कृति है। भारतीय परिवेश में संस्कृत, संस्कार और संस्कृति को अलग-अलग करना संभव नहीं है। शिक्षा इन तीनों के माध्यम से ही आगे बढ़ती है। संस्कृत भाषा है। भाषा मानव की प्राथमिक आवश्यकता है। भाषा के बिना विचार नहीं हो सकता और विचार के बिना मानव मानव नहीं एक प्राणी मात्र रह जाता है। विचार से ही कर्म निकलता है। भारतीय ज्ञान-विज्ञान संस्कृत के माध्यम से ही संस्कृत साहित्य में सुरक्षित है। पाश्चात्य ज्ञान के लिए अंग्रेजी और भारतीय ज्ञान-विज्ञान के लिए संस्कृत का कोई विकल्प नहीं है। जिस प्रकार विज्ञान के बिना तकनीकी विकास नहीं हो सकता, उसी प्रकार संस्कृति के बिना कोई समाज अपने नागरिकों को संस्कारित नहीं कर सकता। मन को सुसंस्कृत किए बिना मानवता नहीं पनप सकती। संस्कार मानव की अनिवार्य आवश्यकता हैं। देव-संस्कृति हो या आसुरी संस्कृति अगली पीढ़ी तक संस्कृति का हस्तांतरण संस्कारों के माध्यम से ही हो सकता है। अपने नागरिकों को संस्कारित करते हुए ही संस्कृति का हस्तांतरण और विकास संभव होता है।
शिक्षा, संस्कृत, संस्कार और संस्कृति भारतीय परिवेश में विकास का आधार हैं। इनमें से किसी की भी उपेक्षा करके हम व्यक्ति और राष्ट्र का विकास नहीं कर सकते। जहाँ तक विकास और उन्नति की बात करते हैं तो उसकी कोई सीमा नहीं है। केवल संस्कृत तक सीमित रहना भी विवेकपूर्ण नहीं होगा। जब हम वसुधैव कुटुंबकम और कृण्वन्ते विश्वम् आर्यम् की बात करते हैं तो हमें विश्व से जुड़ना होगा और विश्व से जुड़ने के लिए विश्व की भाषाओं को भी सीखना होगा। सीखना और सिखाना द्विमार्गीय प्रक्रिया है। अतः विश्व से जुड़ते हुए आदान-प्रदान की प्रक्रिया को स्वीकारना ही होगा। स्वामी विवेकानन्द के अनुसार भारत को जहाँ भौतिक विकास के क्षेत्र में दुनिया से बहुत कुछ ग्रहण करना है, वहीं आध्यात्मिक विकास के लिए दुनिया को बहुत कुछ देना भी है। भारतीय आध्यात्मिक चेतना विश्व को चेतनता के उच्च शिखर की यात्रा करवा सकती है। पिछली शताब्दी में हमने बहुत कुछ सीखा है। भौतिक विकास के क्षेत्र में काफी आगे बढ़े हैं। स्वामी विवेकानन्द के सपनों के अनुकरण में हमारी महिलाएँ ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में काफी आगे बढ़ी हैं। देश ने भौतिक विकास की दृष्टि से महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ हासिल की हैं। चिकित्सा, अंतरिक्ष, प्रौद्योगिकी, उद्योग व व्यवसाय में उल्लेखनीय प्रगति करते हुए आज हम विश्व की पाँचवीं अर्थ व्यवस्था बन चुके हैं।
निःसन्देह हमने भौतिक विकास के क्षेत्र में उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की हैं, किन्तु मानसिक स्तर पर हम अपने नागरिकों को विकसित करने में असफल रहे हैं। इसका प्रमाण दिनों दिन बढ़ते हुए अधमता के स्तर के अपराध हैं। सामूहिक बलात्कार के समाचार, माता और बहनों के साथ बलात्कार के समाचार, पारिवारिक वर्जित रिश्तों में सेक्स संबन्धों के समाचार, पूरे परिवार को ही मौत की नींद सुला देने के समाचार, समलिंगी विवाह को मान्यता देने की माँग, तथाकथित संतों और साधुओं का भौतिक भोग-विलास और काम-वासना का गुलाम होना, यहाँ तक कि बलात्कार और हत्या जैसे आरोपों में जेल जाना, भारतीय संस्कृति के पतन की निशानी है। इससे स्पष्ट हो रहा है कि हम भौतिक विकास भले ही कर पा रहे हों किंतु मानसिक स्तर पर हमारा पतन ही हो रहा है। संस्कारों और संस्कृति की हमारी प्रक्रिया बाधित हो रही है। हम अपनी अगली पीढ़ी को संस्कारित करते हुए संस्कति का हस्तांतरण करने में असमर्थ रहे हैं। हमारी शिक्षा प्रणाली भौतिक विकास की शिक्षा तो दे रही है किंतु मानसिक प्रशिक्षण देने में असमर्थ है। मानवीय मूल्यों का निरंतर क्षय हो रहा है। अतः आवश्यकता इस बात की है कि हम संस्कृत, संस्कार, संस्कृति को अपनी शिक्षा प्रणाली का भाग बनाएँ। हम भौतिक विकास तो करें किंतु मानसिक पतन की कीमत पर नहीं। हम आजीविका के लिए काम करें किंतु जीवन जीने की कला को न भूलें। हमें यह समझना होगा कि हम पशु नहीं हैं, जो केवल खाने और आराम करने को ही सफलता मान लें। केवल भौतिक विकास वास्तविक विकास नहीं है। यह चार पुरुषार्थो, धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में से केवल काम और अर्थ की बात करने के कारण अधूरा है। मानवता के विकास के लिए तो धर्म और मोक्ष के लिए भी काम करने की आवश्यकता है।
व्यष्टि और समष्टि के अस्तित्व को बचाने और विकास के पथ पर अग्रसर करने के लिए आवश्यक है कि हम केवल भौतिक विकास को ही चरम लक्ष्य न बनाएँ। हम सर्ववोमुखी विकास की आवश्यकता को समझें। केवल विज्ञान से ही काम नहीं चल सकता। केवल तकनीकी ही पर्याप्त नहीं है। सुख-सुविधाएँ आवश्यक हैं किंतु जीवन के लिए ये ही पर्याप्त नहीं है। विज्ञान, तकनीक और सुविधाएँ संतुष्टि और आनन्द नहीं दे सकतीं। भौतिक विकास हमें सुरक्षित नहीं कर रहा, यह हमें असुरक्षित बना रहा है। सुरक्षा, संतुष्टि, शांति और आनन्द भौतिक सुख-सुविधाओं से नहीं मिल सकता। इसके लिए मानसिक प्रशिक्षण की आवश्यकता है। मानसिक प्रशिक्षण ही परिवार और समाज को सुसंस्कृत करके जीवन जीने के अवसर प्रदान कर सकता है। जीवन जीने की कला संस्कृत साहित्य में उपलब्ध संास्कृतिक जीवन मूल्य ही सिखा सकते हैं। हमें अपनी शिक्षा को केवल भौतिक विकास की सीमित सोच से संस्कृत, संस्कार और संस्कृति के अविरल सकारात्मक परिवर्तन को स्वीकार करते हुए सर्वतोमुखी विकास की चरमोत्कर्ष की अवधारणा की ओर ले जाना होगा। हमें वैयक्तिक मनमानी को स्वतंत्रता कहने की संकुचित प्रवृत्ति पर अंकुश लगाते हुए सर्वजन हिताय और सर्वजन सुखाय की अवधारणा को आधार बनाना होगा। हमें समझना होगा कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। हम समष्टि के एक कण मात्र हैं। समष्टि के बिना हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। अतः हमारी सुरक्षा समष्टि की सुरक्षा में है। समष्टि की सुरक्षा के लिए और समष्टि के विकास के लिए संस्कृत ही नहीं संस्कार और संस्कृति को शिक्षा का अनिवार्य घटक बनाकर आगे बढ़ने की आवश्यकता है। भारत और भारतीयों के विकास के आधार संस्कृत, संस्कार व संस्कृति पर आधारित शिक्षा प्रणाली ही हो सकती है। जीवन मूल्यों के बिना मानवीय जीवन संभव नहीं है।