साम्प्रदायिकता
बात चाहे कोई भी हो , किसी भी विषय पर हो ,किसी से भी संबंधित हो , देश की हो चाहे विदेश की हो बेशक उस का कोई सिर पैर हों भी या न भी हों परन्तु मेरे मित्र भाई भरोसे लाल आखिर उस सब को घेर घोट कर ले आते हैं – साम्प्रदायिकता पर। उन के लिए हर बात का समाधान , उस का उपाय , उस का विरोध या उस का समर्थन बस साम्प्रदायिकता के विरोध में आ कर सिमट जाता है । उनके कुछ शब्द , कुछ वाक्य बहुत ही प्रिय व रटे रटाये हैं और हर वाक्य या एक दो वाक्यों के उपरांत आखिर उन के मुखारविंद से इस साम्प्रदायिकता “नाम ” का उच्चारण व जाप हो ही जाता।
मैंने कई बार उन से पूछने की कोशिश की थी कि भाई आखिर यह साम्प्रदायिकता विरोध नाम की आप की बीमारी है क्या ? इस के विषय में जरा विस्तार से बताइये या इस पर कभी बैठ कर विचार-विमर्श करते हैं। परन्तु वे इस के लिए भला क्यों राजी होते क्योंकि उन के लिए तो साम्प्रदायिकता का अर्थ बस साम्प्रदायिकता ही था इस से अधिक और कुछ नहीं यानि ऐसा शब्द जिस का न तो मतलब था न ही कोई अर्थ था अपितु बस जैसे जीभ को अनर्थक हिलाना जिस का मतलब आप कुछ भी लगा लो। परन्तु साम्प्रदायिकता का अर्थ था राष्ट्रीय शक्तियों का किसी भी प्रकार से विरोध। अच्छे कामों को रोकना , अपनी पार्टी का और अपना हित साधन करना और निरुत्तर होने या तर्कहीन होने पर या स्वार्थों की सिद्धि के लिए या अपने हर तरह के बचाव के लिए सांप्रदायिकता शब्द का भरपूर उपयोग करना। इसी लिए वे इस साम्प्रदायिकता को कई तरह सेऔर कई अर्थों में अलग अलग समय पर अलह अलग संदर्भों में प्रस्तुत करना यानि जहां भी जब भी उन को कोई उत्तर नही सूझता या उन के पास कोई तर्क नही बचता तो बस उन का एक ही रामबाण होता या रामबाण नही अचूक बाण कहना अधिक ठीक है क्योंकि राम जी तो उन के लिए घोर साम्प्रदायिक शब्द है इस लिए उन के शब्द कोष में ऐसे शब्द या मुहावरे होने का मतलब ही नही है।
भाई भरोसे लाल ने इस साम्प्रदायिकता शब्द से अपने राजनीतिक जीवन को भरपूर सफल बनाया और इस से भरपूर आर्थिक लाभ तो कमाया ही अपितु और भी बहुत से लाभ प्राप्त किये। आप चौंकाने वाली बात हो सकती है कि भला साम्प्रदायिकता शब्द कोई रूपये छापने की मशीन थोड़ी है जो इस से इन्होने रूपये छाप लिए हों। परन्तु आप मेरी बात पर यकीन करें या न करें परन्तु उन के लिए यह शब्द नोट छापने वाली मशीन से भी बहुत कुछ अधिक सिद्ध हुआ।
यह शब्द आपने आप में कुश्ती के किसी भी ताकतवर पहलवान से भी अधिक शक्तिशाली है इतना ही नही यह किसी परमाणु विस्फोट से भी अधिक ताकतवर है। कई बड़े २ विध्वंस इस साम्प्रदायिक शब्द ने चुटकी में कर दिखाए। कई सरकारें पलभर में धराशयी कर के दिखा दीं । अच्छे २ शरीफ राजनेताओं के इस ने पसीने छुड़ा दिए जिनके सार्वजनिक जीवन पर कोई भी आरोप या आक्षेप नही था और जो सरल सात्विक व सादगी भरे जीवन से अपने सामाजिक दायित्व निभा रहे थे अर्थात जिन पर कोई भी राजनितिक , आर्थिक या कैसा भी अपराध पर तो भी भाई भरोसे लाल और उन के मित्रों ने साम्प्रदायिक होने का आरोप सहज ही लगा दिया क्योंकि असल में तो यह कोई आरोप था ही नही पर उन्होंने अपने स्वार्थों के कारण और मिडिया की सहायता से इस का शब्द जाल बना कर इसे आरोपित कर जनता को खूब गुमराह किया और अपना स्वार्थ सिद्ध किया।
इसी लिए मेरा मित्र भाई भरोसे लाल इस शब्द की ताकत को अच्छी तरह पहचानता है और जब भी वह बहस में हारने लगता तो अपने तरकश से मेघनाद की भांति इस साम्प्रदायिकता के ब्रह्मास्त्र को निकल कर मैदान में डट जाता कि अब आओ मेरे सामने कौन आता है तुम सब साम्प्रदायिक हो और ये जल्दी २ साम्प्रदायिक साम्प्रदायिक शब्द का प्रयोग करने लगते क्योंकि यह इन के लिए सब से बड़ी गली है जो ये अपने विरोधियों के लिए भरपूर प्रयोग करते हैं।
वह ही क्या उस की पार्टी या उस की जैसी पार्टियां और उन के नेता सभी इस साम्प्रदायिकता नाम के छाते की ओट अपनी अपनी सुविधानुसार लेते ही रहते हैं। जब भी उन पर किसी संकट की धूप या बौछार पड़ती है तो ये तुरंत अपनेआप को इस साम्प्रदायिक विरोधी छाते के पीछे आसानी से छुपा लेते हैं। जैसे बिल्ली के आने से कबूतर आँखें बंद कर लेता है इतना ही नही जब भी कोई राजनेता या पार्टी घोटाले में फंसी है उस ने तुरंत सम्प्रदाय विरोध को ढाल बना लिया है और इस खोल को अपने उपर ऐसे ओढ़ लिया है जैसे कोई भेड़िया गाय की खेल ओढ़ ले।
भाई भरोसे लाल के लिए यह साम्प्रदायिक शब्द साधारण शब्द नही है अपितु उन के लिए तो यह यह ऐसा तारक मंत्र है जिस के जाप से सब दुःख जाते भाग। इसी लिए ये इसे हर समय तारक मंत्र की भांति रटते रटते अपना उद्धार ढूंढते और करते रहते हैं इसी के जप से वे मारण, मोहन और उच्चाटन आदि भी करते रहते हैं। जो जो भी उन के विरोधी होते हैं उन के लिए ये साम्प्रदायिकता विरोध का मरण और उच्चाटन दोनों रूप में प्रयोग कर के अपना हित साधन कर लेते हैं और पिछले कई दशक से वे और उन के जैसे इस का निरंतर जाप कर रहे हैं।
इसी साम्प्रदायिकता विरोध के सहारे उन की पार्टी ने और उन की जैसी पार्टियों ने खूब मलाई चाटी इतना ही नही खूब दोनों हाथो से जोर लगा लगा कर देश को लूटा खूब घोटाले किये और इसी के सहारे अपने सभी कुकृत्यों को ढके व छुपाये रखा पर हर तरह के देश द्रोह से अब यह घड़ा लबालब भर ही गया।
आखिर किसी बात की हद तो होती ही है “अति का घना न बोलना अति घनी न प्रीत “चरितार्थ हुई और जब देश की जनता इस साम्प्रदायिक शब्द को सुनते २ इतनी उक्ता गई या जब इसे और झेलना उस के बस की बात नही रही तो उस ने इन से पूछना शुरू कर दिया की आखिर कब तक भेड़िया के आने कर डर से सूखते और डरते रहेंगे। अब एक दिन उसे आ ही जाने दो उसे भी देख ही हैं जनता ने भी उस के लिए अपने २ डंडे -झंडे और बटन दबाने के लिए अपनी २ ऊँगली तैयार कर ही ली। और अब वे मोर्चे पर डट गए की अब तो भेड़िया को आ ही जाने दो हम भी देखे कि वह कैसा है उस का रंग रूप के है शक्ल सूरत कैसे है ताकि हमेशा के लिए उस के डर से छुटकारा मिल जाये क्योंकि अब पूरी जनता ही उक्त चुकी है। उठते- बैठते, नहाते-, खाते सोते जगते उस का डर तो ऐसे कैसे काम चलेगा। आखिर लम्बी प्रतीक्षा के उपरांत वह आ ही गया। भाई भरोसे लाल और उस के साथियों ने भेड़िया आया भेड़िया आया का खूब माइक लगा २ कर गांव- गाँव ,शहर -शहर , गली -गली ,सड़क – सड़क पर शोर मचाया कि भेड़िया आ गया तो अनर्थ हो जायेगा परन्तु लोगों ने उन की इस बार एक न सुनी क्योंकि लोग इस बार पहले से ही लोग भेड़िया को देखने के लिए तैयार बैठे थे।
परन्तु जैसे इस साम्प्रदाइकता का चहेरा जनता के सामने आया तो हैरान रह गए कि अरे यह तो कोई भेड़िया भेड़िया नही है यह तो दूर तक भी भेड़िया की शक्ल से नही मिलता है अपितु यह तो हमारी दुधारू कामधेनु गाय से मिलता है मिलता क्या वह ही है तो क्यों न अब इस का जोरदार स्वागत करें और झूठे और मक्कार लोगों को सबक सीखा ही दें। बस फिर क्या था। लोगों जो लठ्ठ और झंडे डंडे इस के विरोध के लिए तैयार कर रखे थे उलटे उन्होंने इस का विरोध करने वालों पर पेलने शुरू कर दिए और इतना बजाया और उन्हें दूर तक इतना खदेड़ कि दुबारा उन के आने की हिम्मत ही न हो। उस के बाद तो जनता ने कमल के फूलों से साम्प्रदायिकता का भरपूर स्वागत किया और उसे अपने यहां प्रतिष्ठित भी कर दिया।
इस के बाद तो मैंने कई बार भाई भरोसे लाल से मिलने का प्रयत्न किया ,परन्तु वे दुर्लभ प्रजाति के जंतु की भांति गायब हो गए। पर आखिर कितने मुंह छिपाते। एक दिन उन्ही की मांद में उन्हें घेर लिया परन्तु अब उन के मुख से वह साम्प्रदायिकता के विरोध के स्वर गायब थे। अब वे किसी नए ऐसे ही झूठे हथियार की खोज में लगे थे जो झूठ मक्कारी और देशद्रोह से भरा हो। पर अब जनता को बेवकूफ नहीं बना पाएंगे अब उन की असलियत सामने आ ही गयी है और जो बची हुई है वह भी शीघ्र ही सामने आ जाएगी। बस अब तो इंतजार इस बात का है कि कब उन्हें अपने किये कुकृत्यों का फल मिले। वास्तव में तो तभी जनता की जीत होगी।
— डॉ. वेद व्यथित