कविता

कविता : सोच रही क्यों ज़िंदा हूँ मैं

(एक ऐसी लड़की की व्यथा जिसने परिवार के लिये अपनी सारी खुशियाँ कुर्बान कर दीं और अन्तत: परिवार ने उसे तनहा छोड़ दिया)

सोच रही क्यों ज़िंदा हूँ मैं. सोच रही क्यों ज़िंदा हूँ मैं.

कैसे कहूँ किसी से कितनी, खुद से ही शर्मिंदा हूँ मैं.

सोच रही क्यों ज़िंदा हूँ मैं.……

कहने को अच्छी-खासी हूँ. दरिया होकर भी प्यासी हूँ.

अक्सर मुझको लगता ऐसा- मैं खुद अपनी ही फांसी हूँ.

पंख कटे हैं पर उड़ने को, आतुर एक परिंदा हूँ मैं.

सोच रही क्यों ज़िंदा हूँ मैं.……

किसकी-किसकी बात न मानी. शायद मैंने की नादानी.

सब के सब अपने में खोये, जिनकी खातिर दी क़ुरबानी.

भीड़ शहर में है पर लगता, तनहा इक वाशिंदा हूँ मैं.

सोच रही क्यों ज़िंदा हूँ मैं.……

टूट गया हर रिश्ता-नाता. अपना कोई नज़र न आता.

कैसे इतना बदल गयी मैं, खुद को अपना रूप न भाता.

अपनी ही  नज़रों से देखूँ, तो लगता है निंदा हूँ मैं.

सोच रही क्यों ज़िंदा हूँ मैं.….…

 

-डॉ.कमलेश द्विवेदी, कानपुर

मो.09415 474674

5 thoughts on “कविता : सोच रही क्यों ज़िंदा हूँ मैं

  • विभा रानी श्रीवास्तव

    दिल को छूती रचना

  • प्रवीन मलिक

    Bahut marmik abhivyakti

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत विचारोत्तेजक कविता !

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    दुःख भरी दास्तान सुनाई गई है कविता के रूप में . मैं भी ऐसा ही अभागा और कह लें तो बेवकूफ हूँ जिस ने अपने हिस्से की पुश्तैनी जयदाद का अपना हिस्सा भाई को इस लिए दे दिया कि भाई खुश रहे , मैं तो यहाँ ठीक हूँ लेकिन अब मुझ से कोई बात करना नहीं चाहता . यह दुनीआं बहुत क्रूअल है .

    • विभा रानी श्रीवास्तव

      छत अलग अलग भले हो लेकिन हर घर की कहानी एक होती है

Comments are closed.