माया जाल
कैसे भूल गया ईश्वर को, फंस कर माया जाल में,
पढ़ लिख कर तुम बड़े हुए ,पर पड़ गए किस जंजाल में,
कैसे भूल गया ईश्वर को फंस कर माया जाल में,
माँ संग सिमरन किया प्रभु का, जब तुम छोटे बच्चे थे,
जब तुम छोटे बच्चे थे,तब मन के कितने सच्चे थे,
ऊंची शिक्षा पा कर क्यों तुम, भूल गए आदर्शो को,
ऊंची कुर्सी बैठ भूल गए, हर मानव के सुख दुःख को.
अपने ओहदे को लेकर तुम मन ही मन इतराते हो,
अपनी हवस मिटाने को कितने असहाय सताते हो,
पढ़ लिख कर अफसर हो गए ,पड़ गए लालच की चाल में,
कैसे भूल गया ईश्वर को फंस कर माया जाल में,
माँ की नसीहत पिता की शिक्षा, भूल गए हो तुम सब कुछ ,
बिना उनकी आशीष से कैसे, इस जीवन में पाओगे सुख,
माँ के चरणों में स्वर्ग बसा है,यह बात सदा तुम रखना याद,
यहाँ तक तुझे पहुँचाने में, माँ बाप ने किये जीवन में त्याग,
पदवी पाकर फ़र्ज़ न भूलो, यह कहते हम हैं विश्वास से,
पढ़ लिख कर तुम बड़े हुए ,पर पड़ गए किस जंजाल में,
कैसे भूल गया ईश्वर को फंस कर माया जाल में,– —–जय प्रकाश भाटिया
बहुत अच्छा गीत, भाटिया जी.
जब यह नए लोग भी बूड़े हो जाएंगे तब यह भी ऐसा ही कहेंगे जो आप ने लिखा है . पशु पंछी भी अपने बच्चों को ऐसा ही पियार करते हैं लेकिन जब वोह उड़ने लाएक हो जाते हैं या आपनी भूख खुद मिटाने के काबल हो जाते हैं तो पशु पंछी अपने बच्चों को खुली हवा में अकेले छोड़ देते हैं . हम इंसान ही ऐसे हैं जो बच्चों को सारी उम्र बाँध कर रखना चाहते हैं , इसी लिए हम दुःख उठाते हैं और जब हम को वोह कुछ नहीं मिलता जो हम बुढापे में चाहते हैं तो दुःख उठाते हैं . समय आ गिया है , जब हम को अपने भविष्य के लिए बंदोबस्त करना चाहिए , बच्चों पर ज़िआदा निर्भर न रहें , उनकी जिंदगी में ज़िआदा दखल ना दें किओंकि उनकी भी ज़िमेदारीआन मौजूदा ज़माने में बहुत हैं . जो समझदार बच्चे हैं , कुछ ना कुछ मदद करेंगे जरुर .
सही कहते हैं आप, भाई साहब !