अंधेरों का महासमुद्र
तुम यूँ ही रूठ जाते हो
हरदम……
जरा सोचो ,कितना मुश्किल है
संभालना खुद के जज्बातों को
जैसे एक उम्र बीत जाती है
अंधेरों से होकर …..
मेरी जिन्दगी में रौशनी से तुम
पर अदृश्य …..
अंतिम और एकमात्र जिसके बाद शायद
कुछ भी नहीं है ……
न कोई स्मृति है न ही कोई स्वप्न
तुम ही तुम हो ….
फिर क्यूँ बढ़ाते हो दरम्यानी फासला
इन बढ़ते फासलों से फैलने लगता है
मन के भीतर
अँधेरे का महासमुद्र ……
मैं खोजती हूँ इधर-उधर
बिखरे शब्दों की स्मृतियों को
जो पढ़ तो सकती हूँ पर
दिखला नहीं सकती ……..!
–– संगीता सिंह ‘भावना’
वाह वाह !
बहुत अच्छी लगी .
बहुत ही सुन्दर और भावपूर्ण रचना।