सुन लो मेरा स्पन्दन
तुम्हारा मुख मंडल
महक रही हैं तुम्हारी साँसें
उसमे घुला हो जैसे चन्दन
तुम्हारी ही छवि निहारते हैं
मेरे नयन
जब जब होता है
सम्मुख मेरे दरपन
कभी किया था
तुम्हारी उँगलियों ने मेरा स्पर्श
उसे महसूस कर
मेरे रोम रोम में
आज भी होते हैं सिहरन
तुम्हारा स्मरण
ही है अब मेरा जीवन
तुम्हारी मुस्कराहट की बाँहें
घेर लेती हैं मुझे
मधुर लगता है मुझे
उसका काल्पनिक बंधन
तुम सूर्यमुखी हो
खिली खिली सी है तुम्हारी सूरत
मैं हूँ तुम्हारी पंखुरियों में
रंग भरनेवाला स्वर्णिम सूरज
तुम हो सुमन
इसीलिए तो कर रहा हूँ
मैं मधुप ..
तुम्हारे समक्ष गुंजन
सुन लो मेरा स्पन्दनकिशोर कुमार खोरेन्द्र
किशोर जी , आप की कवितायेँ बहुत गेहराई वाली होती हैं लेकिन बहुत दफा मैं अपनी जवानी के दिनों में आ जाता हूँ आप की कविता पड़ के . इस से मुझे बाबा फरीद का श्लोक याद आ जाता है जो पंजाबी में है ” अज्ज ना सुत्ती कंत सिओं , अंग मुड़ मुड़ जाए , जाओ पूछो दुहाग्नी (विधवा ) तुम किओं रैण वहाए . जिस के दो मीनिंग हैं , एक प्रिय बीवी की तरफ जाता , दूसरा भगवान् की तरफ जाता है .
बहुत खूब !